शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

कोटा का विकास

कोटा का विकास – समस्याएं और समाधान


                                                                                                                              - एस एन घाटिया



जब हम विकास की बात करते हैं तो सिद्धांत रूप में यह बात उभर कर सामने आती है कि विकास समस्या और समाधान की एक शाश्वत प्रक्रिया है. कोई समस्या सामने आती है और मानव मस्तिष्क प्रयास कर उसका हल खोज लेता है. लेकिन उस समाधान के परिणामस्वरूप कोई नई समस्या उत्पन्न होती है और फिर उसका समाधान खोजा जाता है. इस प्रकार समस्या और समाधान की यह प्रक्रिया शाश्वत काल से चली आ रही है. इसी सिद्धांत को ले कर सामान्य भाषा में एक कहावत भी प्रचलित है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है. हम कह सकते हैं कि विकास मानव स्वभाव की एक मूल प्रवृत्ति है. मनुष्य कभी भी अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नहीं होता है और वह प्रगति की नई राह खोजता रहता है. यही कारण है कि बौद्धिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अन्य प्राणियों की तुलना में मानव क्रमिक विकास के पथ पर सदैव अग्रसर रहा है और आज वह निर्विवाद रूप से सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति है.

वस्तुतः यथास्थिति से संतुष्ट नहीं रहने की प्रवृत्ति के कारण ही मानव जाति का उत्तरोत्तर विकास संभव हो सका है. समस्या और समाधान के इस कार्य-कारण संबंध से ही विकास और विनाश का अनन्य संबंध भी स्थापित होता है. ज़ब भी सुनामी या अन्य किसी विपदा से विनाश होता है तो मानव मन अपने स्वभाव के अनुरूप पुनः नव-निर्माण के प्रयास में जुट जाता है और तब तक चैन नहीं लेता है जब तक कि पहले से बेहतर स्थिति प्राप्त नहीं कर ले. साथ ही, यह भी सत्य है कि जब विकास चरम सीमा पर पहुंच जाता है तो विनाश की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है. यही कारण है कि मानव जाति के इतिहास में कई सभ्यताओं का उत्थान और पतन हुआ. संक्षेप में, हम यह कह सकते हैं कि विनाश और विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और एक में दूसरे के बीज अंतर्निहित होते हैं.
विकास - किसकी जिम्मेदारी?

विकास की प्रक्रिया के इस सैद्धांतिक पक्ष को समझने के पश्चात यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समस्याओं का समाधान खोजने का उत्तरदायित्व किसका है? उत्तर स्पष्ट है - प्रजातंत्र के रूप में हमने लोक-कल्याणकारी शासन (Welfare State) को स्वीकार किया है. इसलिए जन कल्याण की सभी समस्याओं के समाधान खोजने और उन्हें योजना के रूप क्रियांवित करने की जिम्मेदारी सरकार की है. चाहे समस्या बिजली, पानी, पेट्रोल, डीज़ल, सड़क, शिक्षा, चिकित्सा या रोज़गार की हो, हर चीज के लिए हम सरकार का मुंह जोहने के अभ्यस्त हो गए हैं. इसमें हमारी कोई गलती भी नहीं है क्योंकि हमें यही समझाया गया है कि सरकार बनाने के लिए आप हमें वोट दो और सरकार चलाने के लिए टैक्स दो. बस, फिर आपकी सभी समस्याओं को हल करने की जिम्मेदारी हमारी है. आज़ादी के बाद कुछ सालों तक तो यह व्यवस्था ठीक-ठाक चली क्योंकि सरकार के मन में भी ईमानदारी थी और जनता मे भी सहनशीलता थी कि नई-नई सरकार है, इसे अवसर दिया जाना चाहिए. किंतु यह हनीमून पीरियड ज्यादा नहीं चला. लगभग दो दशक बाद ही सरकारी नुमाइन्दे और कारिन्दे समझ गए कि सत्ता-सुख स्थायी नहीं है और फिर संपत्ति समेटने की जो होड़ चली वह आज जग-जाहिर है. आज स्थिति यह है कि टैक्स की आमदनी का अधिकांश भाग वेतन और प्रशासनिक खर्चों में चला जाता है. विकास के लिए पैसा बचता ही नहीं है. इसलिए सरकार द्वारा ऋण लिए जाते हैं, किंतु उसकी भी सीमा हम पार कर चुके हैं. अब विकास कैसे हो? इसके लिए एक नया कंसेप्ट चालू किया गया पी पी पी – पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप. विकास की योजनाएं इतनी विशाल हैं कि अकेली सरकार उन्हें नहीं चला सकती है. अतः विकास की प्रक्रिया में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी आवश्यक है. आज हम देखते हैं कि रैलवे के अलावा सरकारी एकाधिकार के लगभग सभी क्षेत्र धीरे-धीरे प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिए गए हैं – शिक्षा, चिकित्सा, सड़कें, बिजली, पेट्रोल-डीज़ल, बैंकिंग-बीमा, डाक व फ़ोन सेवाएं इत्यादि. प्राइवेट सेक्टर के आने के बाद इन क्षेत्रों में प्रतियोगिता बढ़ी है और सेवाओं में सुधार देखने को मिला है.

विकास का मूल आधार क्या है? अब यह अच्छी तरह स्पष्ट हो चुका है कि विकास के लिए सरकारी संरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह गया है. वनों के विकास के लिए हमने वन विभाग बनाया और वन समाप्त हो गए. सरकारी संरक्षण की यही कहानी हम चिकित्सा, शिक्षा, सड़कों, रोडवेज़ बसों, बिजली, पानी, डाक आदि क्षेत्रों के विकास में देखते हैं. किसी भी स्थान या क्षेत्र का विकास मूल रूप से दो बातों पर निर्भर करता है. प्रथम, वहां की भौगोलिक स्थिति, जलवायु और प्राकृतिक संसाधन जैसे नदियां, समुद्र, झीलें, भूमि का उपजाऊपन, खनिज पदार्थ इत्यादि. दूसरी, उसके नागरिकों की दृढ़ इच्छा शक्ति एवं नेतृत्व की योग्यता.

विकास की प्रक्रिया के इस परिप्रेक्ष्य में कोटा संभाग की स्थिति को समझने के लिए हमें कोटा के आर्थिक व व्यावसायिक इतिहास में जाना होगा. समय-समय पर यहां की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारकों के आधार पर कोटा शहर को अलग-अलग नामों से पुकारा जाता रहा है.

नन्दग्राम
ललित कला अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक The Kingdom That Was Kota के अनुसार, सन 1719 में गोस्वामी गोपीनाथजी से वल्लभ कुल में दीक्षा लेने के पश्चात, महाराव भीमसिंह I नें आधिकारिक रूप से कोटा का नाम नंदग्राम कर दिया था. उस समय सरकारी पट्टों और परवानों (आदेशों) पर लगाई जाने वाली मोहर पर लिखा होता था:

उत्कीर्ण काया सर्वदा सर्वभाविणः भजनीयो प्रजाधिपः

भीमस्य कृष्ण दासस्य राजसिंह मध मुद्रिका

तत्पश्चात, सन 1744 में श्री मथुराधीशजी के मंदिर की स्थापना पाटनपोल में हुई. लगभग दो शताब्दियों तक इस मंदिर के कारण वैष्णवों के पुष्टिमार्गीय संप्रदाय का एक प्रमुख तीर्थस्थान बना रहा. यद्यपि यह नाथद्वारा या कांकरोली की तरह अधिक विकसित नहीं हो सका, पुष्टिमार्गीय संप्रदाय की श्रद्धा का केंद्र होने के कारण धार्मिक पर्यटन स्थल (नन्दग्राम) के रूप में भी कोटा की अर्थव्यवस्था को उस समय की परिस्थितियों के अनुरूप गति मिली.


दशहरा मेला

देश में मैसूर के बाद कोटा की ख्याति राष्ट्रीय स्तर के दशहरे मेले के कारण भी रही है. यद्यपि बदलते समय के साथ आज दशहरा मेला मनोरंजन का पर्याय रह गया है, किसी समय इस मेले का कोटा की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान हुआ करता था. इसका आरंभ एक धार्मिक मेले के रूप में सन 1723 में महाराव दुर्जनशाल सिंह द्वारा किया गया था. महाराव उम्मेद सिंह II (1889-1940) नें इस मेले का विस्तार कर इसे क्रय-विक्रय का केंद्र बना एक नया आर्थिक आयाम और अत्यधिक लोकप्रियता प्रदान की. कालांतर में इसे राष्ट्रीय मेले का दर्जा मिला.

सुगम भौगोलिक स्थिति, कृषि के लिए अनुकूल जलवायु और प्राकृतिक संसाधनों का लाभ कोटा को आरंभ से ही मिलता रहा है. ब्रिटिश शासन में दिल्ली-बंबई रैल मार्ग का निर्माण कोटा के आर्थिक विकास को सुदृढ़ता प्रदान करने में नींव का पत्थर साबित हुआ. इसके कारण कोटा की कृषि उपज और खनिज पदार्थों की पहचान देश-विदेश के बाज़ारों में हो गई. यही कारण है कि रैलवे लाइन के आसपास स्थानीय उद्योगों का विकास आरंभ हुआ.

स्वतंत्रता के पश्चात, 1948 में विलय के समय कोटा रियासत की वार्षिक आय लगभग रु. 1.25 करोड़ थी. तत्कालीन रियासत द्वारा नवनिर्मित राजस्थान प्रांत को अन्य परिसंपत्तियों के अलावा रु. 2.5 करोड़ नकद प्रदान किए गए थे.

स्वतंत्रता से पूर्व आधुनिक नागरिक सुविधाओं - नल, बिजली, शिक्षा, चिकित्सा व यातायात के साधन इत्यादि – की दृष्टि से कोटा रियासत की गिनती न केवल राजपूताने बल्कि पूरे भारत की गिनी-चुनी प्रगतिशील रियासतों में होती थी. महाराव उम्मेदसिंह II (1889-1940) के शासन काल में ही कोटा शहर में पहली बार नल-बिजली की सुविधा नागरिकों को उपलब्ध हो गई थी. सन 1909 में उच्च शिक्षा हेतु हाड़ोती का प्रथम हर्बर्ट हाईस्कूल (वर्तमान गवर्नमेंट कॉलेज) स्थापित किया जा चुका था जो कि 1956 में स्नातकोत्तर महाविद्यालय के रूप में क्रमोन्नत हो गया. इसी प्रकार लड़कियों की शिक्षा हेतु पहली बार 1916-17 में विद्यालय (वर्तमान जे डी बी गर्ल्स कॉलेज) की स्थापना की गई जो 1958 में स्नातक महाविद्यालय के रूप में क्रमोन्नत हो कर वर्तमान में स्नातकोत्तर स्तर का प्रमुख महाविद्यालय है. शिक्षा के क्षेत्र में इन प्रारंभिक प्रयासों का ही परिणाम है कि आज राजस्थान में साक्षरता की दृष्टि से कोटा का प्रथम स्थान (73.78%) है. 1940 के पश्चात, महाराव उम्मेदसिंह II के उत्तराधिकारी के रूप में महाराव भीमसिंह नें अपने पिता की प्रगतिशील नीतियों का अनुसरण करते हुए कोटा के विकास को जारी रखा. उनके समय में संचार साधनों के विस्तार पर विशेष ध्यान दिया गया और सीमेंट सड़कों का निर्माण कराया गया. इसी समय कोटा में एयरपोर्ट और महाराव भीमसिंह हॉस्पिटल का निर्माण हुआ.


कोटा स्टोन
व्यापार-व्यवसाय की दृष्टि से खाद्यान्नों, छत और फर्शी के लिए सैंड स्टोन (लाल पत्थर) और लाइम स्टोन (कोटा स्टोन) का देश के दूसरे भागों में भारी मात्रा में निर्यात आरंभ हुआ. लाखेरी में एसोसिएटेड सीमेंट कंपनी (एसीसी) की सीमेंट फैक्ट्री और रामगंजमंडी में एसोसिएटेड स्टोन कंपनी के चालू होने से स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति मिली. लघु स्तर पर, जगपुरा में चूने के भट्टे और कैथून में कोटा साड़ी भी उल्लेखनीय हैं. यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर कोटा की पहचान कोटा स्टोन और कोटा साड़ी के कारण भी रही है.

चंबल
एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन के रूप में चंबल नदी को कोटा की जीवन रेखा माना जाता है. स्वतंत्रता के आरंभिक वर्षों में चंबल घाटी परियोजना के अंतर्गत विभिन्न बांधों के निर्माण का कोटा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. चंबल कभी नहीं सूखने वाली नदी है. देश की प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत चंबल घाटी परियोजना का कार्य 1953 में आरंभ हो गया था और सिंचाई के लिए 1960 में नहरों से जल उपलब्ध करा दिया गया था. इस परियोजना के चार बांध तीन चरणों में बनाए गए थे. प्रथम चरण में, गांधी सागर डैम और कोटा बैराज का निर्माण 1960 में पूरा कर लिया गया था. द्वितीय चरण में, राणा प्रताप सागर बांध (रावतभाटा) 1970 में और तृतीय चरण में जवाहर सागर बांध 1972 में बन गए थे. लगभग एक दशक तक चंबल परियोजनाओं के विशाल निर्माण कार्यों के कारण कोटा की अर्थव्यवस्था को बल मिला. चंबल के नहरी जल की उपलब्धता से कोटा, बूंदी और बारां क्षेत्रों में विकास का एक नया युग आरंभ हुआ और कोटा चंबल के कारण भी जाना जाने लगा.

औद्योगिक नगरी
कोटा में जल और विद्युत की प्रचुरता के साथ ब्रॉडगेज रैल लाइन की उपलब्धता नें औद्योगिक समूहों को आकर्षित किया और इसी के साथ आरंभ हुआ आधुनिक बड़े उद्योगों की स्थापना का एक नया दौर. कुछ उल्लेखनीय नाम हैं - डीसीएम, जे के सिंथेटिक्स, ओरियंटल पॉवर कैबल्स, इंस्ट्रुमेंटेशन, रावतभाटा में एटोमिक पॉवर प्लांट, थर्मल प्लांट और मल्टीमेटल्स इत्यादि. इन उद्योगों की स्थापना के कारण कोटा एक औद्योगिक नगरी और राजस्थान के कानपुर के नाम से जाना लगा. इन बड़े उद्योगों की स्थापना के कारण जहां एक और कोटा के व्यापार-व्यवसाय और अनुषंगी लघु उद्योगों का विस्तार हुआ, वहीं दूसरी और बल्लभबाड़ी, बल्लभनगर, दादाबाड़ी और विज्ञाननगर जैसी बृहद नई आवासीय कालोनियों का निर्माण हुआ. आर्थिक विकास की दृष्टि से इसका लाभ सभी वर्गों को रोजगार, व्यापार और व्यवसाय के प्रचुर अवसरों के रूप में मिला.

कोटा में वर्तमान में कोई नियमित विमान सेवा नहीं है. विमान सेवा किसी भी शहर के विकास का एक मापदंड मानी जाती है. इस मापदंड पर हम कोटा को 1960 के दशक में अधिक विकसित कह सकते हैं क्योंकि उस समय यह विमान सेवा के माध्यम से दिल्ली, जयपुर इत्यादि शहरों से जुड़ा हुआ था.


औद्योगिक रुग्णता

राजनैतिक इतिहास की तरह, आर्थिक इतिहास में भी उत्थान और पतन का क्रम देखने को मिलता है. इन्हें तेजी और मंदी के आर्थिक चक्र कहते है. 1980 के दशक में श्रमिक आंदोलनों और अन्यान्य कारणों से कोटा में औद्योगिक रुग्णता का जो दौर आरंभ हुआ वह कोटा की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हुआ. एक के बाद एक, लगभग सभी प्रमुख उद्योग रुग्ण होते गए. 1970 के दशक के पश्चात कोटा संभाग का विकास लगभग थम सा गया था. कोई नए उद्योग या विकास की सरकारी परियोजनाएं यहां नहीं आ रही थीं. कुछ विश्लेषक इसका एक मुख्य कारण इस संभाग को विरोधी राजनीतिक दल का गढ़ होना भी मानते हैं. जनमानस में यह एक सामान्य धारणा बन गई है कि प्रदेश का मुख्यमंत्री जिस क्षेत्र का होता है वहां का विकास अधिक होता है.

शैक्षणिक नगरी
जैसा कि कहा जाता है, जब विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है तो कोई नई राह खुलती है. औद्योगिक रुग्णता के फलस्वरूप उत्पन्न आर्थिक मंदी से उबरने के लिए कोटा में कोचिंग संस्थाएं विकसित होने लगीं. व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण 1984 में श्री वी के बंसल द्वारा जे के कॉलोनी के एक गेरीज में शुरू की गई कोचिंग कक्षाएं आज एक विशाल उद्यम के रूप में विकसित हो चुकी हैं. सन 1986 में कोटा के एक कोचिंग छात्र को आइ आइ टी (I.I.T.) की प्रवेश परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त होने के बाद यहां कोचिंग उद्यम द्रुत गति से विकसित होने लगा. इंजीनियरिंग और मेडिकल इत्यादि की प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए इस समय बाहर के लगभग 70,000-80,000 छात्र अध्ययन करते हैं जिनका कोटा की अर्थव्यवस्था में लगभग रु.600 करोड़ वार्षिक का योगदान है. कोचिंग संस्थाओं नें इस व्यवसाय में लगभग रु.500 करोड़ का विनिवेश किया हुआ है. मोटे रूप से, कोचिंग छात्रों की वृद्धि दर लगभग 10 प्रतिशत वार्षिक है. इसमें कोई संदेह नहीं है कि कोचिंग उद्योग के कारण कोटा की अर्थव्यवस्था को एक नई गति मिली है और अखिल भारतीय स्तर पर अब शैक्षणिक नगरी के रूप में इसकी ख्याति स्थापित हो चुकी है. कोटा के कोचिंग उद्योग की बढ़ती हुई ख्याति से प्रभावित हो अमेरिका से श्री एरिक बेलमेन नें व्यक्तिगत रूप से 2008 में कोटा आ कर विशेष रूप से यहां की बंसल क्लासेज की कोचिंग प्रणाली का नजदीक से अध्ययन किया. उनकी विश्लेषणात्मक रिपोर्ट को India's Cram-School Confidential: Two Years, One Test, 40,000 Students Town Fills With Teens Studying Full-Time For a College Entrance Exam; 'Bansalites Rock' शीर्षक से अमेरिका के प्रमुख दैनिक समाचार पत्र “वाल स्ट्रीट जरनल” (30 09 2008) में प्रकाशित किया गया. इस रिपोर्ट में कोटा की अर्थव्यवस्था पर कोचिंग उद्योग के प्रभाव को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है: Cramming has been the salvation of Kota, an industrial center in the 1970s that then fell on hard times. In the past three years, new malls, restaurants, hotels, Internet cafes and clothing stores began to spring up to serve the 16- and 17-year-old cram kids. Many homeowners have added second and third floors to rent out to students.

Balwan Diwani, manager of Milan Cycle, a bike shop in Kota, says bicycle sales have surged to more than 2,000 a year from fewer than 200 five years ago. Mamta Bansal, no relation to the school founder, quit her job as a maid to start a service to deliver boxed lunches and dinners to 30 students as they study. "We try to make what their mothers would cook for them," she says. "I have had to learn how to make dishes from Gujarat, the Punjab and southern India."

Local schools also have benefited: Cram students have to attend regular classes so they can pass their high-school exams and graduate. Some high schools have early morning classes so cram students can finish early and move on to cramming.

"There used to be a lot of hooliganism and goons," says Pradeep Singh Gour, director of the Lawrence and Mayo Public School in Kota. "Now the entire city is like a university campus."

कोचिंग की बढ़ती हुई ख्याति के कारण विगत कुछ वर्षों से कोटा को व्यावसायिक द्वेष से प्रेरित राजनैतिक पक्षपात का सामना करना पड़ रहा है. इस पक्षपात के प्रमुख उदाहरण हैं - कोटा के स्थान पर जोधपुर में आइ आइ टी (I.I.T.) की स्थापना करना और इंजीनियरिंग व मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं के केंद्र कोटा में नहीं रखना. यद्यपि इस वर्ष के बजट में यहां आइ आइ आइ टी (I.I.I.T.) की स्थापना की घोषणा की गई है, यह भविष्य के गर्भ में है क्योंकि पहले आइ आइ टी भी कोटा को देने की घोषणा की गई थी किंतु अंततोगत्वा इसे जोधपुर को दे दिया गया. इन नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद, कोटा की कोचिंग संस्थाओं की गुणवत्ता व यहां के कठोर प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण के कारण छात्रों की संख्या में प्रति वर्ष वृद्धि हो रही है. गत वर्ष (सितंबर 2010) में, कोटा की एक अग्रणी कोचिंग संस्था कैरियर प्वाइंट (Career Point Infosystems Ltd.) नें इक्विटी शेयर्स की पब्लिक इश्यू के माध्यम से पूंजी बाजार में प्रवेश किया था जिसे निवेशकों का बहुत अच्छा समर्थन मिला. कहा जाता है कि शेयर बाज़ार का रुख आर्थिक स्वास्थ्य का सही संकेतक होता है. इस दृष्टि से इस पब्लिक इश्यू को मिला प्रोत्साहन कोटा की कोचिंग संस्थाओं के लिए और अंततः यहां की अर्थव्यस्था के अच्छे स्वास्थ्य का सूचक है.

इस लेख के आरंभ में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के माध्यम से आर्थिक विकास का उल्लेख किया गया था. न केवल कोचिंग उद्योग में अपितु उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी हम पाते हैं कि निजी क्षेत्र द्वारा कोटा में इंजीनियरिंग, डेंटल, मैनेजमेंट और सामान्य विषयों के महाविद्यालयों की स्थापना की जा चुकी है. इसी प्रकार, चिकित्सा के क्षेत्र में भी कॉरपोरेट हॉस्पिटल्स कार्य कर रहे हैं. निजी क्षेत्र में ही, मल्टी स्टोरी बिल्डिंग्स और टाउनशिप्स की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हो रही है.

उक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि कोटा के आर्थिक विकास में (विशेष रूप से स्वतंत्रता के पश्चात) इसकी भौगोलिक स्थिति, जलवायु, प्राकृतिक संसाधनों, कृषि योग्य उपजाऊ भूमि, जल स्त्रोत खनिज संपदा का विशेष योगदान रहा है - चाहे वह 1950 का दशक हो या फिर 1960-70 के दशक या वर्तमान काल. इन सभी अनुकूल तत्वों के कारण कोटा के विकास की अपरिमित संभावनाएं हैं. किसी समय यह माना जाता था कि कोटा में उद्यमिता (entrepreneurship) की कमी है. किंतु यहां के संसाधनों से आकर्षित हो बाहर के उद्यमियों के आने, शिक्षा के विकास और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के कारण स्थानीय उद्यमिता भी विकसित हुई है और कोटा के सतत विकास की संभावनाएं प्रबल हैं.