जन्म की वर्षगांठ
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एस एन
घाटिया
मैं हर रोज की तरह मॉर्निंग वाक् के लिए सुबह छः बजे स्टेडियम पहुँच
गया था| आकाश में मध्यम दर्जे के बादल छाए हुए थे और सूरज बादलों में से बीच-बीच
में थोड़ा सा मुंह निकाल कर देख रहा था कि बाहर निकलूं या नहीं| मंद-मंद बहती हुई
हवा शरीर को शीतलता प्रदान कर रही थी| हमारे वाकिंग ग्रुप के सदस्य एक-एक कर आते
जा रहे थे और बातों का सिलसिला चालू होने लगा था| आज शिवदयालजी बहुत प्रफुल्लित लग
रहे थे| मैंने उनसे इस प्रसन्नता का राज पूछा तो बताने लगे कि आज उनका जन्मदिन है|
हम सब अचंभित हो उनकी ओर देखने लगे ऐसा कैसे हो सकता है? हमारे ग्रुप के
जन्मदिवस कलेंडर के अनुसार आज तो किसी का भी जन्मदिवस नहीं है| शिवदयाल जी कहने
लगे यही तो आज उनकी प्रसन्नता का राज है| उन्होंने बताया कल दोपहर वे पुरानी
फाइलों के कागजों को जमा रहे थे तो उनकी
जन्मपत्री हाथ लग गयी| उसे देखने पर उन्हें पता चला कि हिन्दू पंचांग के अनुसार
उनका जन्म चैत्र शुक्ल पंचमी को हुआ था| तत्काल उन्होंने
निश्चय किया कि हमें जन्मदिन व अन्य अवसरों को अंग्रेजी तारीखों (ग्रेगोरियन
कलेंडर) के स्थान पर भारतीय तिथियों पर मनाना चाहिए| इस पर ग्रुप में तेज बहस छिड़
गयी और सब अपने-अपने विचार रखने के लिए उतावले हो गए|
स्टेडियम में वैसे तो मॉर्निंग वाक् वाले कई ग्रुप हैं, लेकिन हमारे
ग्रुप में सभी प्रकार के बुद्धिजीवी अधिक हैं और इसीलिए यह ग्रुप प्रखर चर्चाओं के
लिए विख्यात है| अब ग्रुप के समन्वयक अशोकजी ने स्थिति को संभालते हुए सबको शांत
होने के लिए कहा कि चलिए आज इसी विषय पर चर्चा हो जाए और सबके विचार सुन लिए जाएं|
विषय शिवदयालजी ने छेड़ा था, इसलिए सबसे पहले उनसे ही पूछा गया कि भारतीय तिथि से जन्मदिन
मनाने से क्या लाभ होगा? शिवदयालजी ने कहा कि प्रश्न लाभ-हानि का नहीं है बल्कि
इसका उद्देश्य हमारी हिन्दू परम्परा को बढ़ावा देने का है ताकि नई पीढ़ी भारतीय
तिथियों से परिचित हो सके| ग्रुप के सबसे मुखर सदस्य जगदीशजी जो हमेशा बहस के लिए
तैयार रहते हैं तुरंत प्रतिवाद करने लगे कि नई पीढी की तो बात छोडिए हम में से ही
कितने लोग दैनिक जीवन में भारतीय तिथियों को अपनाते हैं? जगदीशजी को समर्थन देते
हुए सदैव शांत रहने वाले सुनीलजी कहने लगे कि शिवदयालजी भाई सा. चलिए आपके कहने से जन्मदिन तो
हम भारतीय तिथि से मना लेंगे, लेकिन मोमबत्ती बुझा कर काटोगे तो केक ही जो कि न तो
भारतीय व्यंजन है और न ही मोमबत्ती (ज्योति) बुझाना हिन्दू परम्परा के अनुरूप है|
अब अपने आपको अत्याधुनिक समझने वाले दिनेशजी कैसे पीछे रह सकते थे|
उन्होंने कंधे उचकाते हुए नहले पर देहला दागा कि हम भारतीयता की कितनी ही दुहाई दे
लें, पहनेंगे तो पेंट–शर्ट और कोट-टाई ही जो कि कतई भारतीय परिधान नहीं है| पिछली
शताब्दी में और उसमें भी स्वतन्त्रता के पश्चात के वर्षों में हमने जिस आतुरता से
पाश्चात्य पद्धतियों को अपनाया है उसके कारण हमारे खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा,
रीति-रिवाज यहाँ तक कि भाषा में भी ऐसे कई स्थायी बदलाव आ गए हैं जो हमारी तथाकथित भारतीय
परंपराओं के सर्वथा विपरीत हैं| अतः वर्ष में केवल एक बार मनाये जाने वाले जन्मदिन की तारीख को भारतीय तिथि में बदलने से
पहले यह आवश्यक है हम हमारी दैनिक जीवन शैली की पूरी तरह से भारतीय बनाने की कोशिश करें|
इस चर्चा में इतिहास का पुट लगाते हुए जयंतजी कहने लगे कि मुगलों और
मुगलों के पूर्व के अन्य कई मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत पर 500 से अधिक वर्षों तक
राज्य किया, लेकिन इतनी लंबी दासता की विषम परिस्थितियों में भी भारतीय जनता ने
अपनी धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं एवं मान्यताओं को नहीं छोड़ा| इसके बाद
ईस्ट इंडिया कंपनी (1757 से 1858) और ब्रिटिश राज (1858 से 1947) के लगभग 200 वर्षों के शासन काल में भी हमारे पूर्वजों ने येन-केन-प्रकारेण
अपनी धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखा| लेकिन विडम्बना तो यह है कि 1947 में राजनीतिक स्वतन्त्रता मिलते ही हम ऐसे बौराए कि
हमें हमारी पुरानी परंपराएं पिछड़ेपन की निशानी लगने लगी और हम तेजी से अपनी जड़ों
से दूर होते गए| हमारी जो परम्पराएं 700 वर्ष के विदेशी शासन में ख़त्म नहीं हुई, उन्हें हमने अपने तथाकथित स्वराज के मात्र 70 वर्षों की छोटी सी अवधि में तिलांजलि
दे दी| और, अब देश में सामाजिक विघटन और वैश्वीकरण के दुष्परिणाम सामने आने
के बाद हमें होश आने लगा है कि हमने यह क्या कर डाला! भारतीय परंपराओं की
वर्तमान दुर्दशा को कवि प्रदीप ने फिल्म “नास्तिक” (1983) के गीत में बहुत ही दर्दभरे ढंग से प्रस्तुत किया था: “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी
भगवान, कितना बदल गया इंसान...इन्हीं की काली करतूतों से बना ये मुल्क
मशान...कितना बदल गया इंसान...|”
अब शिवदयालजी को लगने लगा कि बहस में वे अकेले पड़ते जा रहे हैं, इसलिए
उन्होंने कहा कि हमें कहीं न कहीं तो भारतीय परम्परा को पुनः स्थापित करने के लिए
शुरूआत करनी ही पड़ेगी| इस पर बारी आई
कट्टर सनातनी पं रामप्रसादजी की, जो वैसे तो इस प्रकार की बहसों में कम ही बोलते
थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि जब लोगों को उनके विचारों की काट के लिए कोई ठोस तर्क
नहीं मिलता है तो वे उन पर पुरातन पंथी होने का लेबल लगा चर्चा को वहीं समाप्त कर
देते हैं| लेकिन पं. रामप्रसादजी को लगा कि आज उनका पक्ष भारी है| अतः उन्होंने
पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखते हुए कहा कि हमारे देश में जन्मदिन मनाने की परम्परा पूर्ण
रूप से आयातित है क्योंकि न तो रामायण में और न ही महाभारत या अन्य प्राचीन भारतीय
ग्रंथों में जन्मदिवस मनाने का कोइ प्रसंग मिलता है| केवल सोलह संस्कारों जैसे जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार,
अन्नप्राशन संस्कार, चूडाकर्म (मुंडन संस्कार), विद्यारम्भ संस्कार, कर्णवेध
संस्कार, उपनयन संस्कार इत्यादि की परम्परा अवश्य है| ऐसा लगता है जन्मदिवस मनाने
का रिवाज हमारे यहां विदेशों की अंधाधुंध नकल के कारण आरंभ हो गया है| जन्मदिन की पाश्चात्य
प्रथा ने समाज में जिस तरह पिछले 70 वर्षों में जड़े मजबूत कर ली हैं, उसी प्रकार अब पिछले कुछ वर्षों
से हमारे देखते-देखते वेलेंटाइन दिवस भी भारत में पैर पसारने लगा है| अतः हमें इन
सभी आयातित उत्सवों से सावधान रहने की आवश्यकता है|
यह सुनते ही इतिहास-विशेषज्ञ जयंतजी की तो बांछे खिल उठी और वे विस्तार से बताने लगे कि जन्मदिवस मनाने की परंपरा मूल रूप से प्राचीन मिश्र
देश की है जहां की स्थानीय मान्यता के अनुसार फरोह (Pharoh) का राज्याभिषेक होने पर उसे देवता
माना जाता था| अतः वहाँ राज्याभिषेक के दिन को फरोह के जन्मदिवस के रूप में प्रति
वर्ष मनाया जाने लगा| मिश्र देश से यह परंपरा ग्रीक लोगों ने अपनाई| आरंभ में ईसाई
धर्मगुरुओं ने जन्म दिन मनाने की ग्रीक प्रथा का अनुमोदन नहीं किया था, पर अठारहवी
शताब्दी में जर्मनी से आरंभ होते हुए यह प्रथा धीरे-धीरे पूरे यूरोप व अमेरिका में
क्रिश्चियन समाज द्वारा स्वीकार कर ली गयी| इसी क्रम में ब्रिटिश राज के अंतर्गत
भारत में नियुक्ति पर आने वाले अंग्रेज परिवारों ने जन्म-दिवस और विवाह-दिवस को वार्षिक
उत्सव के रूप में मनाने का रिवाज यहां भी चालू रखा| उनकी देखा-देखी भारतीय
राज-परिवारों और आभिजात्य वर्ग ने भी शनैः शनैः जन्म-दिवस और विवाह-दिवस मनाने की
परंपरा को अपना लिया| कालान्तर में, विशेष रूप से स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा के
प्रसार और बढ़ती हुई सम्पन्नता के प्रभाव से जन-समुदाय ने भी इस रिवाज को अपना
लिया| हमने जन्म-दिवस और विवाह-दिवस की परंपरा अंग्रेजों से ली थी इसलिए केक काटने और मोमबत्ती बुझाने के रिवाज को भी यथावत स्वीकार कर लिया|
चर्चा के रुख को देखते हुए, शिवदयालजी ने भी अब पैंतरा बदला और कहा
कोई बात नहीं, यदि हमने जन्म दिन मनाने की इस प्रथा को अपना ही लिया है तो अब हमें
चाहिए कि इसे हिन्दू तिथियों के अनुसार मनाना शुरू कर इसका भारतीयकरण कर देना चाहिए| लेकिन पर्यावरणविद हेमंतजी को इस पर कड़ी आपत्ति थी| वे कहने लगे वैसे ही हमारे भारतीय त्यौहार कम
नहीं हैं, महीने में यदि दिन तीस तो तीज–त्यौहार पैंतीस होते हैं| फिर हमने त्योहारों-उत्सवों
को सादगीपूर्ण परंपरागत ढंग से मनाने के बजाय इतना आडंबरपूर्ण बना दिया है कि यह लोगों की सम्पन्नता के प्रदर्शन के लिए स्टेटस सिम्बल बन कर रह गया है| इस तरह के अनावश्यक उत्सवों के कारण भी देश
में प्रदूषण की समस्या विकराल होती जा रही है और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का
अनावश्यक दोहन अंधाधुंध रूप से बढ़ता जा रहा है| यही कारण है कि कोरोना जैसी भयानक
महामारियां भी हमें एक प्रकार से चेतावनी दे रही हैं कि हम अपने तौर-तरीकों को
सुधारें और जीवन में कृत्रिमता को छोड़ कर सहज सरल जीवन शैली अपनाएं| यदि जन्मदिन मनाने की प्रथा उधार ली हुई है तो हमें इसे तुरंत छोड़ देना
चाहिए|
हमारे ग्रुप के रश्मिकांतजी का रुझान आजकल अध्यात्म, विशेष कर वेदान्त
के सिद्धांतों की और बढ़ता जा रहा था| सामान्यतः ग्रुप में तत्वबोध जैसे गूढ़ विषयों
में सदस्यों की रुचि कम ही रहती है| लेकिन आज का विषय ही ऐसा था कि रश्मिकांतजी को
भी चर्चा में अध्यात्म का महत्त्व प्रतिपादित करने का अवसर मिल गया| उन्होंने कहा कि
हम जन्मदिन किसका मनाते हैं? इस नश्वर देह का या आत्मा का जो नित्य, अजर-अमर है?
जो नित्य (eternal) है उसका तो न कोई आदि–मध्य-अंत होता है और इसलिए उसकी कोई वर्षगाँठ
भी नहीं होती है| और, जो नश्वर देह है वह तो जीर्ण वस्त्र से नईं वस्त्र की भांति
बदलती रहती है| अतः चौरासी लाख देहों में से किस-किस देह का जन्मदिन कब-कब और किस-किस
पद्धति से मनाया जाए? शिवदयालजी भी इन दिनों द्वैत-अद्वैत का अध्ययन कर रहे थे|
उन्हें बात एकदम समझ में आ गयी और स्वयं द्वारा आरंभ की हुई चर्चा का पटाक्षेप
करते हुए तुरंत कह उठे “वाह रश्मिकांतजी, आपकी बात एक दम ठीक है, इस देहरूपी आवरण की
वर्षगांठ मनाने की न तो कोई तुक है और न ही कोई आवश्यकता है!”
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