शनिवार, 18 जुलाई 2020

मन मेरा...घर मेरा


मन मेरा...घर मेरा
- एस एन घाटिया

(कविता लिखना मेरा स्वभाव नहीं है| 1967 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने पर, जैसा कि उस समय प्रायः सबके साथ होता था, स्थायी नौकरी की तलाश में कुछ वर्ष बेकारी और छुटपुट अस्थायी  कार्यों में भी कटे| उसके बाद साहित्य और दर्शन के विद्यार्थी को स्थायी ठौर मिली तो वो भी एक बैंक में! सब कुछ अजीब सा लगता था| डेबिट-क्रेडिट से बंधी जिन्दगी, सुबह से शाम तक थकी जिन्दगी वाली कोल्हू-के-बैल जैसी स्थिति थी| ऐसे में एक दिन इस कविता की रचना हुई| यह भी खूब रही कि बैंक में डेबिट-क्रेडिट से बंधी वह जिन्दगी धीरे-धीरे ऐसी रास आई कि पता ही नहीं चला जीवन के बहुमूल्य 36 वर्ष कब और कैसे नित नई सार्थक अनुभूति के साथ निकल गए| )
                                                                                             

                                                                                                                                                           
मेले में खोये बालक सा

भटका करता है मन मेरा

चलते-चलते रो-रो कर

थक जब जाता है

भीड़ भरे कोलाहल से दूर

बैठ घने बरगद की छाँह तले

मन मेरा अकुलाता है|

                             बिछोह की उस बेला में

                             उमड़-उमड़ घन आते हैं

                             रोके नहीं रुकते हैं आंसू

                             परिचित और अपना सा लगता है

                             हर आता-जाता चेहरा

                             पास आने पर वह भी

                             कोई अजनबी निकलता है|

अबोध निरुपाय बालक-सा

हार-थक कर सो जाता हूं

आँख खुलने पर घिरा पाता हूं

अपने ही घर की

चिर-परिचित दीवारों से

जानी-पहचानी आवाजों से,

पदचापों से गंधों से|

                               ऐसे में

                               याद बरबस ही आ जाती है

                               स्कूल में पढ़ीं कविता की पंक्तियां -

                               देख लिया हमने जग सारा

                               अपना घर है सबसे प्यारा|

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सोमवार, 6 जुलाई 2020

जन्म की वर्षगांठ


जन्म की वर्षगांठ

-          एस एन घाटिया

मैं हर रोज की तरह मॉर्निंग वाक् के लिए सुबह छः बजे स्टेडियम पहुँच गया था| आकाश में मध्यम दर्जे के बादल छाए हुए थे और सूरज बादलों में से बीच-बीच में थोड़ा सा मुंह निकाल कर देख रहा था कि बाहर निकलूं या नहीं| मंद-मंद बहती हुई हवा शरीर को शीतलता प्रदान कर रही थी| हमारे वाकिंग ग्रुप के सदस्य एक-एक कर आते जा रहे थे और बातों का सिलसिला चालू होने लगा था| आज शिवदयालजी बहुत प्रफुल्लित लग रहे थे| मैंने उनसे इस प्रसन्नता का राज पूछा तो बताने लगे कि आज उनका जन्मदिन है| हम सब अचंभित हो उनकी ओर देखने लगे ऐसा कैसे हो सकता है? हमारे ग्रुप के जन्मदिवस कलेंडर के अनुसार आज तो किसी का भी जन्मदिवस नहीं है| शिवदयाल जी कहने लगे यही तो आज उनकी प्रसन्नता का राज है| उन्होंने बताया कल दोपहर वे पुरानी फाइलों के कागजों को जमा रहे थे तो उनकी जन्मपत्री हाथ लग गयी| उसे देखने पर उन्हें पता चला कि हिन्दू पंचांग के अनुसार उनका जन्म चैत्र शुक्ल पंचमी को हुआ था| तत्काल उन्होंने निश्चय किया कि हमें जन्मदिन व अन्य अवसरों को अंग्रेजी तारीखों (ग्रेगोरियन कलेंडर) के स्थान पर भारतीय तिथियों पर मनाना चाहिए| इस पर ग्रुप में तेज बहस छिड़ गयी और सब अपने-अपने विचार रखने के लिए उतावले हो गए|

स्टेडियम में वैसे तो मॉर्निंग वाक् वाले कई ग्रुप हैं, लेकिन हमारे ग्रुप में सभी प्रकार के बुद्धिजीवी अधिक हैं और इसीलिए यह ग्रुप प्रखर चर्चाओं के लिए विख्यात है| अब ग्रुप के समन्वयक अशोकजी ने स्थिति को संभालते हुए सबको शांत होने के लिए कहा कि चलिए आज इसी विषय पर चर्चा हो जाए और सबके विचार सुन लिए जाएं| विषय शिवदयालजी ने छेड़ा था, इसलिए सबसे पहले उनसे ही पूछा गया कि भारतीय तिथि से जन्मदिन मनाने से क्या लाभ होगा? शिवदयालजी ने कहा कि प्रश्न लाभ-हानि का नहीं है बल्कि इसका उद्देश्य हमारी हिन्दू परम्परा को बढ़ावा देने का है ताकि नई पीढ़ी भारतीय तिथियों से परिचित हो सके| ग्रुप के सबसे मुखर सदस्य जगदीशजी जो हमेशा बहस के लिए तैयार रहते हैं तुरंत प्रतिवाद करने लगे कि नई पीढी की तो बात छोडिए हम में से ही कितने लोग दैनिक जीवन में भारतीय तिथियों को अपनाते हैं? जगदीशजी को समर्थन देते हुए सदैव शांत रहने वाले सुनीलजी कहने लगे कि  शिवदयालजी भाई सा. चलिए आपके कहने से जन्मदिन तो हम भारतीय तिथि से मना लेंगे, लेकिन मोमबत्ती बुझा कर काटोगे तो केक ही जो कि न तो भारतीय व्यंजन है और न ही मोमबत्ती (ज्योति) बुझाना हिन्दू परम्परा के अनुरूप है|

अब अपने आपको अत्याधुनिक समझने वाले दिनेशजी कैसे पीछे रह सकते थे| उन्होंने कंधे उचकाते हुए नहले पर देहला दागा कि हम भारतीयता की कितनी ही दुहाई दे लें, पहनेंगे तो पेंट–शर्ट और कोट-टाई ही जो कि कतई भारतीय परिधान नहीं है| पिछली शताब्दी में और उसमें भी स्वतन्त्रता के पश्चात के वर्षों में हमने जिस आतुरता से पाश्चात्य पद्धतियों को अपनाया है उसके कारण हमारे खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, रीति-रिवाज यहाँ तक कि भाषा में भी ऐसे कई स्थायी बदलाव आ गए हैं जो हमारी तथाकथित भारतीय परंपराओं के सर्वथा विपरीत हैं| अतः वर्ष में केवल एक बार मनाये जाने वाले जन्मदिन की तारीख को भारतीय तिथि में बदलने से पहले यह आवश्यक है हम हमारी दैनिक जीवन शैली की पूरी तरह से भारतीय बनाने की कोशिश करें| 

इस चर्चा में इतिहास का पुट लगाते हुए जयंतजी कहने लगे कि मुगलों और मुगलों के पूर्व के अन्य कई मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत पर 500 से अधिक वर्षों तक राज्य किया, लेकिन इतनी लंबी दासता की विषम परिस्थितियों में भी भारतीय जनता ने अपनी धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं एवं मान्यताओं को नहीं छोड़ा| इसके बाद ईस्ट इंडिया कंपनी (1757 से 1858) और ब्रिटिश राज (1858 से 1947) के लगभग 200 वर्षों के शासन काल में भी हमारे पूर्वजों ने येन-केन-प्रकारेण अपनी धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखा| लेकिन विडम्बना तो यह है कि 1947 में राजनीतिक स्वतन्त्रता मिलते ही हम ऐसे बौराए कि हमें हमारी पुरानी परंपराएं पिछड़ेपन की निशानी लगने लगी और हम तेजी से अपनी जड़ों से दूर होते गए| हमारी जो परम्पराएं 700 वर्ष के विदेशी शासन में ख़त्म नहीं हुई, उन्हें हमने अपने तथाकथित स्वराज के मात्र 70 वर्षों की छोटी सी अवधि में तिलांजलि दे दी| और, अब देश में सामाजिक विघटन और वैश्वीकरण के दुष्परिणाम सामने आने के बाद हमें होश आने लगा है कि हमने यह क्या कर डाला! भारतीय परंपराओं की वर्तमान दुर्दशा को कवि प्रदीप ने फिल्म “नास्तिक” (1983) के गीत में बहुत ही दर्दभरे ढंग से प्रस्तुत किया था: “देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान, कितना बदल गया इंसान...इन्हीं की काली करतूतों से बना ये मुल्क मशान...कितना बदल गया इंसान...|” 
                     
अब शिवदयालजी को लगने लगा कि बहस में वे अकेले पड़ते जा रहे हैं, इसलिए उन्होंने कहा कि हमें कहीं न कहीं तो भारतीय परम्परा को पुनः स्थापित करने के लिए शुरूआत करनी ही पड़ेगी| इस पर  बारी आई कट्टर सनातनी पं रामप्रसादजी की, जो वैसे तो इस प्रकार की बहसों में कम ही बोलते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि जब लोगों को उनके विचारों की काट के लिए कोई ठोस तर्क नहीं मिलता है तो वे उन पर पुरातन पंथी होने का लेबल लगा चर्चा को वहीं समाप्त कर देते हैं| लेकिन पं. रामप्रसादजी को लगा कि आज उनका पक्ष भारी है| अतः उन्होंने पूरी दृढ़ता से अपनी बात रखते हुए कहा कि हमारे देश में जन्मदिन मनाने की परम्परा पूर्ण रूप से आयातित है क्योंकि न तो रामायण में और न ही महाभारत या अन्य प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जन्मदिवस मनाने का कोइ प्रसंग  मिलता है| केवल सोलह संस्कारों जैसे जातकर्म संस्कार, नामकरण संस्कार, निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन संस्कार, चूडाकर्म (मुंडन संस्कार), विद्यारम्भ संस्कार, कर्णवेध संस्कार, उपनयन संस्कार इत्यादि की परम्परा अवश्य है| ऐसा लगता है जन्मदिवस मनाने का रिवाज हमारे यहां विदेशों की अंधाधुंध नकल के कारण आरंभ हो गया है| जन्मदिन की पाश्चात्य प्रथा ने समाज में जिस तरह पिछले 70 वर्षों में जड़े मजबूत कर ली हैं, उसी प्रकार अब पिछले कुछ वर्षों से हमारे देखते-देखते वेलेंटाइन दिवस भी भारत में पैर पसारने लगा है| अतः हमें इन सभी आयातित उत्सवों से सावधान रहने की आवश्यकता है|
    
यह सुनते ही इतिहास-विशेषज्ञ जयंतजी की तो बांछे खिल उठी और वे विस्तार से बताने लगे कि जन्मदिवस मनाने की परंपरा मूल रूप से प्राचीन मिश्र देश की है जहां की स्थानीय मान्यता के अनुसार फरोह (Pharoh) का राज्याभिषेक होने पर उसे देवता माना जाता था| अतः वहाँ राज्याभिषेक के दिन को फरोह के जन्मदिवस के रूप में प्रति वर्ष मनाया जाने लगा| मिश्र देश से यह परंपरा ग्रीक लोगों ने अपनाई| आरंभ में ईसाई धर्मगुरुओं ने जन्म दिन मनाने की ग्रीक प्रथा का अनुमोदन नहीं किया था, पर अठारहवी शताब्दी में जर्मनी से आरंभ होते हुए यह प्रथा धीरे-धीरे पूरे यूरोप व अमेरिका में क्रिश्चियन समाज द्वारा स्वीकार कर ली गयी| इसी क्रम में ब्रिटिश राज के अंतर्गत भारत में नियुक्ति पर आने वाले अंग्रेज परिवारों ने जन्म-दिवस और विवाह-दिवस को वार्षिक उत्सव के रूप में मनाने का रिवाज यहां भी चालू रखा| उनकी देखा-देखी भारतीय राज-परिवारों और आभिजात्य वर्ग ने भी शनैः शनैः जन्म-दिवस और विवाह-दिवस मनाने की परंपरा को अपना लिया| कालान्तर में, विशेष रूप से स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा के प्रसार और बढ़ती हुई सम्पन्नता के प्रभाव से जन-समुदाय ने भी इस रिवाज को अपना लिया| हमने जन्म-दिवस और विवाह-दिवस की परंपरा अंग्रेजों से ली थी इसलिए केक काटने और मोमबत्ती बुझाने के रिवाज को भी यथावत स्वीकार कर लिया|
                                
चर्चा के रुख को देखते हुए, शिवदयालजी ने भी अब पैंतरा बदला और कहा कोई बात नहीं, यदि हमने जन्म दिन मनाने की इस प्रथा को अपना ही लिया है तो अब हमें चाहिए कि इसे हिन्दू तिथियों के अनुसार मनाना शुरू कर इसका भारतीयकरण कर देना चाहिए| लेकिन पर्यावरणविद हेमंतजी को इस पर कड़ी आपत्ति थी|  वे कहने लगे वैसे ही हमारे भारतीय त्यौहार कम नहीं हैं, महीने में यदि दिन तीस तो तीज–त्यौहार पैंतीस होते हैं| फिर हमने त्योहारों-उत्सवों को सादगीपूर्ण परंपरागत ढंग से मनाने के बजाय इतना आडंबरपूर्ण बना दिया है कि यह लोगों की सम्पन्नता के प्रदर्शन के लिए स्टेटस सिम्बल बन कर रह गया है| इस तरह के अनावश्यक उत्सवों के कारण भी देश में प्रदूषण की समस्या विकराल होती जा रही है और साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का अनावश्यक दोहन अंधाधुंध रूप से बढ़ता जा रहा है| यही कारण है कि कोरोना जैसी भयानक महामारियां भी हमें एक प्रकार से चेतावनी दे रही हैं कि हम अपने तौर-तरीकों को सुधारें और जीवन में कृत्रिमता को छोड़ कर सहज सरल जीवन शैली अपनाएं| यदि जन्मदिन मनाने की प्रथा उधार ली हुई है तो हमें इसे तुरंत छोड़ देना चाहिए|



हमारे ग्रुप के रश्मिकांतजी का रुझान आजकल अध्यात्म, विशेष कर वेदान्त के सिद्धांतों की और बढ़ता जा रहा था| सामान्यतः ग्रुप में तत्वबोध जैसे गूढ़ विषयों में सदस्यों की रुचि कम ही रहती है| लेकिन आज का विषय ही ऐसा था कि रश्मिकांतजी को भी चर्चा में अध्यात्म का महत्त्व प्रतिपादित करने का अवसर मिल गया| उन्होंने कहा कि हम जन्मदिन किसका मनाते हैं? इस नश्वर देह का या आत्मा का जो नित्य, अजर-अमर है? जो नित्य (eternal) है उसका तो न कोई आदि–मध्य-अंत होता है और इसलिए उसकी कोई वर्षगाँठ भी नहीं होती है| और, जो नश्वर देह है वह तो जीर्ण वस्त्र से नईं वस्त्र की भांति बदलती रहती है| अतः चौरासी लाख देहों में से किस-किस देह का जन्मदिन कब-कब और किस-किस पद्धति से मनाया जाए? शिवदयालजी भी इन दिनों द्वैत-अद्वैत का अध्ययन कर रहे थे| उन्हें बात एकदम समझ में आ गयी और स्वयं द्वारा आरंभ की हुई चर्चा का पटाक्षेप करते हुए तुरंत कह उठे “वाह रश्मिकांतजी, आपकी बात एक दम ठीक है, इस देहरूपी आवरण की वर्षगांठ मनाने की न तो कोई तुक है और न ही कोई आवश्यकता है!”
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शनिवार, 23 मई 2020

बकानी में स्वतंत्रता संग्राम का अलख


बकानी में स्वतंत्रता संग्राम का अलख  

    - एस. एन. घाटिया 


(भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के संदर्भ में बकानी का योगदान इतिहास का एक निरंतर विस्मृत होता जा रहा स्वर्णिम पृष्ठ है जिसे इस आलेख के विद्वान लेखक श्री सत्यनारायण घाटिया प्रकाश में लाए हैं| श्री घाटिया बकानी के एक ऐसे गौरवशाली व्यक्तित्व हैं जो बैंकिंग एवं वित्त प्रबंधन में विशेष योग्यता रखते हुए बैंक ऑफ बड़ौदा के ए.जी.एम. पद से सेवानिवृत्त हुए हैं और पू.छा.से.स. के उपाध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं| आपने चार वर्ष तक लंदन में कार्यरत रह कर भारत का गौरव संवर्धन किया है तथा "चार्टिंग द फ्यूचर" नाम से बैंकिंग के इतिहास विषयक पुस्तक का लेखन भी किया है| संप्रति कोटा निवासी श्री घाटिया प्रबुद्ध चेता होने के अतिरिक्त कोटा में रिटायर्ड बैंक ऑफिसर्स फोरम के अध्यक्ष, कोटा डवलपमेंट फोरम के पूर्व अध्यक्ष तथा कोटा सिटीजन कौंसिल के सदस्य भी हैं| बकानी के इतिहास के एक महत्वपूर्ण आयाम को अपने कुशल लेखन से संयोजित करने के लिए आभार|                                                                                                                                                 संपादक त्रय)  

जीवन के आरंभिक वर्षों में मेरे जैसे कई पूर्व छात्रों के केरियर की सुदृढ़ नींव बकानी की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक चेतना के कारण ही निर्मित हो सकी है। प्रभात फेरियों में बड़े स्कूल के स्काउट अध्यापक श्रद्धेय श्री बालचंदजी शर्मा के देशभक्ति गीत हमारे बाल-मन में एक नवीन ऊर्जा का संचार कर हमें अपने देश और समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा देते थे। लेज़िम व डम्बल की लय- ताल के साथ देशभक्ति के तराने हमारे मन-मस्तिष्क में रच-बस गए थे:  

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला
प्रेम-सुधा बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।

ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए भारतवर्ष में मुख्य रूप से दो स्वतंत्रता संग्राम हुए हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में आरंभ हुआ था जिसमें ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया था। यह स्वतंत्रता संग्राम लगभग दो वर्षों तक देश के विभिन्न भागों में चला एवं कई स्थानों पर अंग्रेज अधिकारियों के साथ असैनिक अंग्रेज स्त्रियां व बच्चे भी मारे गए। इस संग्राम में सैकड़ों भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे, मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर और मंगल पांडे इत्यादि इस सशस्त्र क्रांति के लोकप्रिय नायक थे। तत्कालीन राजपूताने में भी "कमल और रोटी" का संदेश पहुंच चुका था। योजना के अनुसार 28 मई, 1857 को नसीराबाद की सैनिक छावनी में क्रांति का शंखनाद हुआ। 3 जून, 1857 को नीमच की छावनी में भारतीय सैनिकों ने शस्त्र उठा लिए। इसी के साथ ब्यावर, देवली, एरिनपुरा (जोधपुर) तथा खैरवाड़ा की छावनियों में भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी। शाहपुरा (भीलवाड़ा) नरेश भी क्रांतिकारियों के साथ हो गये, जबकि कोटा और झालावाड़ नरेश अंग्रेजों के पक्ष में थे।   
कोटा शहर में 1857 का यह संग्राम लाला जयदयाल कायस्थ व मेहराबखां पठान के नेतृत्व में लड़ा गया था। कोटा में नियुक्त एजेंसी के सर्जन डॉक्टर सेडलर और सिटी डिसपेंसरी के इंचार्ज मिस्टर सेवील को मार डाला गया। सन 1857 की धनतेरस (कार्तिक कृष्ण 13) के दिन कोटा के पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन और उसके दो पुत्र तलवार के वार से मारे गए। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया और भारतीय सैनिकों ने शहर पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव रामसिंहजी कुछ स्वामिभक्त राजपूत सरदारों के साथ गढ़ में बंद थे और उनका शासन गढ़ तक ही सीमित रह गया था। बाद में रजवाड़ों और अंग्रेज सेना की सहायता से जयदयाल कायस्थ व मेहराबखां पठान अपने कई सैनिक साथियों के साथ मारे गए और छह महीने पश्चात 31 मार्च, 1858 को कोटा शहर पुनः महाराव रामसिंहजी के अधिकार में आ गया। जून 1858 में तात्या ने टोंक पर अधिकार कर लिया। टोंक से बूंदी, भीलवाड़ा तथा कांकरोली में अंग्रेजों को मात देते हुए वे झालरापाटन पहुंचे। झालावाड़ का राजा भी  अंग्रेजों का सहयोगी था, किन्तु राज्य की सेना ने तात्या का साथ दिया और देखते-देखते स्वातंत्र्य सैनिकों ने झालावाड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तात्या टोपे भारतीय स्वातंत्र्य सैनिकों के साथ इन्दौर की ओर निकल गये।

बकानी में भी कोटा रियासत का किला था पर यहां इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रभाव का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि राजपूताना में मुख्यतः जहां-जहां अंग्रेज सेनाएं नियुक्त थीं युद्ध वहीं हुआ था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंततः विफल रहा क्योंकि यह केवल सैनिकों का असंगठित युद्ध था जिसमें आम जनता का जुड़ाव नहीं हो सका था। ब्रिटिश साम्राज्ञी विक्टोरिया द्वारा दिनांक 1 नवंबर 1858 को की गई उद्घोषणा के अनुसार अब संपूर्ण भारत पर ब्रिटिश सरकार का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया।  

देश में अंग्रेजों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो जाने के बाद, भारत के लोगों को नीतियां बनाने व शासन करने का कोई अधिकार नहीं रह गया था। ब्रिटिश शासकों और स्थानीय सामंतों की मनमानी से जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा बढ़ती गई जिसने द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया। इसका आरंभ 1876 में कलकत्ता में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा भारत एसोसिएशन के गठन एवं तत्पश्चात 1885 में ए.ओ. ह्यूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से माना जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से नवशिक्षित मध्यम वर्ग का रुझान राजनीति की ओर होने लगा और इससे भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पश्चात और विशेष रूप से 1915 में महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद देश के सुदूर कस्बों व गांवों का प्रबुद्ध वर्ग भी स्वदेशी आंदोलन से जुड़ने लगा।

बकानी में भी कई प्रबुद्ध व्यक्ति विद्यार्थी जीवन से ही स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए थे। मेरे पूज्य पिताजी श्री रामनारायणजी घाटिया के पुराने कागजों में भारत की आज़ादी, समाज सेवा व ग्रामोद्धार के बारे में मुझे उनके निम्नलिखित संस्मरण मिले हैं, जिन्हें पढ़ने से बकानी में तत्कालीन स्थिति (1926-1947) का पता चलता है:

श्री रामनारायणजी घाटिया की डायरी

बड़ा स्कूल व बकानी में पहला अखबार: वे लिखते हैं कि “बचपन से जहां तक मुझे स्मृति आती है सन 1926 या 27 में जब मैं कक्षा दो में था ग्राम बकानी का बड़ा स्कूल बन गया था और दो क्लासों में ही मैं पुराने स्कूल में पढ़ा था। कक्षा तीन में तो मुझे बकानी के बड़े स्कूल में पढ़ने का सौभाग्य मिला जहां से मैने 1934 में कक्षा आठ की परीक्षा इलाहाबाद बोर्ड से द्वितीय श्रेणी में गणित में डिस्टिंक्शन के साथ उत्तीर्ण की।“
एक संग्रहणीय दस्तावेज के रूप में 80 वर्ष पुराना यह बोर्ड सर्टिफिकेट नीचे दिया हुआ है:





आगे वे बताते हैं कि “हमारे गांव में सबसे पहिला अखबार कक्षा दो में श्री प्यारेलालजी मास्टर साहब ने कलकत्ता से निकलने वाला साप्ताहिक पत्र “स्वतंत्र” जिसका वार्षिक चंदा केवल मात्र रु. 2/- था मेरे लिए मंगवाया। इसके साथ ही मैने अपने साथी श्री संपतराजजी जैन के शामिल में समाज सुधारक कार्यालय लखनऊ से छोटे-छोटे भजनों की समाज सुधार संबंधी किताबों का पार्सल मंगा कर इन छोटी-छोटी दो-दो पैसे वाली पुस्तकों को बेचना शुरू किया।“

बकानी के पहले स्वतंत्रता सैनानी श्री निरंतर हरिजी: “मेरे गांव बकानी के पुराने नेता श्री निरंतर हरिजी विदेशी वस्त्र आंदोलन में अजमेर गिरफ्तारी दे चुके थे और 15 दिन की जैल काट चुके थे। वे जब जैल से छूट कर आए तो बकानी में उनका स्वागत किया गया था। उनका नारा था “क्यों भाई क्यों”? हम लोग कहते “क्या भाई क्या?” फिर वे कहते “एक काम करोगे?” हम लोग कहते “क्या भाई क्या?” निरंतर हरिजी कहते “जैल चलोगे?’ हम उत्साह से कहते “हां भाई हां”। इससे हमारे बाल मन में भी देश को आज़ाद कराने के लिए जैल जाने की भावना जागृत हुई। देश की छोटी-मोटी खबरें भी हमें साप्ताहिक “स्वतंत्र” से मिलती रहती थी। श्री निरंतर हरिजी को आज़ादी के बाद स्वतंत्रता सैनानी का पद तथा 15/- रुपया माहवार पेंशन मिलती रही।“

हाड़ौती में प्रजामंडल की स्थापना: तत्कालीन राजपूताने में स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ किसान आन्दोलनों से हुआ क्योंकि रजवाड़ों में राजाओं और जागीरदारों के विरुद्ध असंतोष बढ़ता जा रहा था। अलग-अलग रियासतों में चल रहे किसान आंदोलन प्रजामंडल से जुड़ गए। प्रजामंडल आंदोलन राजनीतिक जागरण एवं देश में गाँधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष का परिणाम था। यद्यपि आरंभ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देशी रियासतों के प्रति उदासीन रही। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में सन 1938 में आयोजित हरिपुरा (सूरत जिला, गुजरात) अधिवेशन में रियासतों के प्रति कांग्रेस की नीति में परिवर्तन आया। रियासती जनता को भी अपने-अपने राज्य में संगठन निर्माण करने तथा अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने की छूट दे दी गई। उसी वर्ष (1938) मेवाड़ में संगठित राजनीतिक आन्दोलन की शुरुआत हो गयी। इस नई जन-जागृति के जनक थे माणिक्यलाल वर्मा जिन्होने 25 अप्रैल, 1938 को उदयपुर में कार्यकर्त्ताओं की बैठक कर प्रजामंडल का विधान स्वीकृत कराया। प्रजामंडल की स्थापना होते ही तत्केकालीन शासन द्वारा इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और आन्दोलन-प्रचारकों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाहियाँ की जाने लगी। सन 1938 में ही कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन नयनूराम शर्मा की अध्यक्षता में माँगरौल में हुआ। 1941 में नयनूराम शर्मा की हत्या हो जाने के बाद प्रजामण्डल का नेतृत्व अभिन्न हरि ने किया। “भारत छोड़ो आंदोलन” में 13 अगस्त, 1942 ई. को सरकार ने शम्भूदयाल जी, हीरालाल जी जैन एवं वेणी माधव जी आदि कोटा के स्वतन्त्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर रामपुरा कोतवाली में बन्द कर दिया। यह गिरफ्तारी अंग्रेज सरकार के इशारे पर कोटा स्टेट ने की थी। इसकी खबर आग की तरह कोटा में फैल गयी। इससे जन-आंदोलन और भड़का तथा जनता ने शहर कोतवाली पर राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया। कोटा के नागरिक व छात्र रामपुरा कोतवाली को घेर वहां धरने पर बैठ गए। बकानी में जन्मे अब्दुल हमीदजी इस धरने में अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए थे।स्वतन्त्रता सेनानियों ने पुलिस को बैरकों में बंद कर दिया व नगर पर जनता का अधिकार हो गया। कोटा महाराव द्वारा दमन न करने के आश्वासन पर जनता ने महाराव को शासन सौंपा और प्रजा मण्डल के कार्यकर्त्ता रिहा कर दिए गए।

बकानी में प्रजामंडल की स्थापना: “उन्हीं दिनों थानेदारी से इस्तीफा दे श्री अभिन्न हरिजी कोटा राज्य प्रजा मंडल के अध्यक्ष बने। वे रामगंजमंडी के पास के एक गांव के रहने वाले थे, लंबा लट्ठ रखते थे और और नंगे सिर रहते थे जो घोट-मोट था। वे हमारे गांव में प्रजामंडल बनाने आए थे। उन्होनें मेरे पिताजी श्री भैरूलालजी घाटिया को बकानी प्रजामंडल का प्रथम अध्यक्ष और मेरे साथी श्री संपतराजजी को प्रथम मंत्री बनाया। मैने भी मंत्री बनने की हठ की थी और मेरा भी नाम सहायक मंत्री में लिखा गया था। मैं एक बार अपने बच्चे का इलाज कराने इन्दोर गया था। उस रोज श्री राजगोपालचारी का भाषण राजबाड़ा के सामने हुआ था उसमें राजाजी ने बहुत जोर-शोर से रजवाडों व अंग्रेजों के दोहरे शासन को खत्म कर देश में इन पुराने टूटे-फूटे सामंती बर्तनों के बजाय कांग्रेस के नए प्रजातांत्रिक बर्तन लाने के लिए हमको कहा था, यह बात मुझे आज भी याद है।"

बकानी के सात लोगों की थानेदार द्वारा गिरफ्तारी: “श्री लल्लूलालजी कायस्थ सन 1942 से 1947 के बीच में बकानी में थानेदार रहे थे। मेरे मोड़ी मंडल कांग्रेस का अध्यक्ष होने की वजह से कुछ न कुछ शिकवा-शिकायत होते ही रहते थे और सन 1946-47 में आज़ादी मिलने से पहले मेरा व मेरे पिताजी श्री भैरूलालजी घाटिया सहित बकानी के छह अन्य लोगों का रविवार के रोज छुट्टी के दिन चालान बना कर एस.डी.ओ. साहिब श्री शंभूकरणजी चारण इकलेरा की अदालत में पेश करने हेतु थाना इकलेरा में बंद रखा। उधर बकानी से दूसरी बस जो झालावाड़ जा रही थी उस पूरी बस में गांव के करीब सभी प्रतिष्ठित और हम सात आरोपियों के परिवार के व्यक्ति एस.पी. साहिब झालावाड़ के पास पहुंचे। वहां उस दिन श्रीमान डी.आई.जी साहिब भी पधारे हुए थे, उन्हें ले कर इकलेरा कोर्ट में पहुंचे और एस.डी.ओ. साहिब श्री शंभूकरणजी चारण को घर से बुलवा कर रविवार को ही नियमानुसार हमारे जमानत मुचलके करवा रिहाई की गई। बकानी की स्वागतातुर जनता हमें जुलूस में बाज़ार बकानी में ले गई और श्री रामगोपालजी गांधी सरपंच के सभापतित्व में सभा कर के पुलिस के विषय में आलोचनाएं की । डेढ़ साल तक हमारा मुकदमा चलता रहा और हम सातों आरोपियों के खिलाफ मुकदमा खारिज किया गया तथा श्री लल्लूलालजी थानेदार को नौकरी से बर्खास्त किया गया। सन 1947 में 15 अगस्त का जुलूस निकालने के लिए भी हमको इकलेरा से ऑर्डर लाना पड़ा तब 15 अगस्त का जुलूस बकानी में निकाला जा सका। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान के लिए 26 जनवरी 1986 को हाड़ौती स्वतंत्रता संग्राम सैनानी समिति द्वारा प्रमाण पत्र एवं राजस्थान प्रदेश कांग्रेस द्वारा मुझे स्वतंत्रता सैनानी का प्रशस्ति पत्र मिला।“


जयपुर कांग्रेस अधिवेशन: “श्री वेदपालजी त्यागी जो स्वतंत्रता से पहले कोटा राज्य के मंत्रियों में लिए गए थे और आगे जा कर कोटा राज्य व राजस्थान के राज्यपाल तक पहुंचे थे। श्री वेदपालजी त्यागी हमारे वकील भी थे इस वजह से कोटा के होने से मेरा उनसे नजदीकी संबंध था। वे जयपुर में आयोजित कांग्रेस के 55वें अधिवेशन में हमारे गांव से भी 15-16 वालंटीयर ले गए थे। मैं मोड़ी मंडल कांग्रेस अध्यक्ष व श्री संपतराजजी बकानी मंडल कांग्रेस के अध्यक्ष होने से हम भी इस अधिवेशन में जयपुर गए थे। पंडित जवाहरलाल जी नेहरू की अध्यक्षता में यह अधिवेशन सन 1948 में हुआ था। तब अधिकांश प्रतिनिधि टेंटों में रुके थे और दरियों पर बैठ कर पार्टी के कार्य की रूपरेखा तैयार की थी।“ 
बकानी में शहीद स्मारक: स्वतंत्रता के पश्चात श्री संपतराजजी जैन की अध्यक्षता के दौरान प्रजामंडल बकानी द्वारा स्वाधीनता संग्राम के शहीदों और सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रथम स्वाधीनता दिवस पर हाट चौक में भारतीय स्वतंत्रता स्मारक की स्थापना की गई थी:


श्री संपतराजजी जैन मात्र 18 वर्ष की आयु में सन 1936 से ही राजनीति से जुड़ गए थे। पारिवारिक व्यवसाय में आपका मन कभी नहीं लगा और देश व समाज सेवा में आप तन-मन-धन से आजीवन जुटे रहे। इसी प्रकार श्री चांदमलजी बोथरा ने भी समाज सुधार व देशसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं दी। राजनीतिक जागृति के लिए वे शिक्षा के प्रसार को अत्यंत आवश्यक मानते थे। आप भी प्रजामंडल बकानी के अध्यक्ष रहे और कोटा राज्य प्रजामंडल के भी सदस्य रहे। 
श्री सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीदजी कौसर: बकानी में स्वतंत्रता संग्राम के अलख की यह चर्चा श्री अब्दुल हमीदजी के उल्लेख के बिना अधूरी रहेगी। श्री अब्दुल हमीदजी का जन्म 5 मई 1929 को बकानी में हुआ था। उनके पिताजी का नाम सैयद मीर मोहम्मद अली था। जब वे तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो जाने से उनके परिवार के सदस्य उन्हें बकानी से बूँदी ले गए। “भारत छोड़ो आंदोलन” के सिलसिले में जब कोटा कोतवाली को स्वतंत्रता सेनानियों की गिरफ्तारी के विरोधस्वरूप घेर लिया गया था तो उस धरने में अब्दुलहमीदजी कौसर और रामचंद्रजी सक्सेना अग्रिम पंक्ति में बैठे थे। उसी समय घुड़सवार सैनिकों ने आन्दोलनकारियों को रौंदने का प्रयास किया। पुलिस के साथ इस संघर्ष में छात्र नेता अब्दुलहमीदजी एवं रामचंद्रजी सक्सेना सहित और भी कई लोग घायल हुए। दिनांक 20 अगस्त, 1942 ई. को स्वतंत्रता सेनानियों को बिना शर्त रिहा करने पर कोतवाली से घेरा हटाया गया।
श्री कौसर इसके बाद अपनी शिक्षा पूर्ण कर बूंदी में वकालत करते रहे। श्री अब्दुल हमीदजी  'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध थे क्योंकि सन 1954 ई. में उनके एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी।
खादी-व्रत: हमने अपने बचपन में देखा कि बकानी के कई व्यक्तियों ने स्वदेशी आन्दोलन से प्रभावित हो आजीवन खादी पहनने का व्रत ले रखा था। महात्मा गांधी के अनुसार हाथ से कते-बुने खादी के वस्त्र पहनना भी देशसेवा थी। बकानी में नियमित रूप से खादी पहनने वाले व्यक्तियों में श्री निरंतर हरिजी, बाबू चांदमलजी बोथरा, बासाहब संपतराजजी जैन, श्री रामगोपालजी गांधी, श्री कन्हैयालालजी जोशी, श्री रामनारायणजी घाटिया, श्री पन्नालालजी भंडारी, श्री नंदलालजी घाटिया, श्री हंसराजजी तातेड़ इत्यादि प्रमुख रहे हैं। श्री रामनारायणजी घाटिया ने बकानी मे खादी के प्रचार-प्रसार के लिए कई वर्षों तक खादी-भंडार का संचालन किया और बाद में कई वर्षों तक खादी-भंडार रामपुरा बाज़ार कोटा के प्रबंधक रहे और फिर सन 1967 तक क्षेत्रीय खादी भंडार कोटा के भी मैनेजर रहे।
मेरे पिताजी श्री रामनारायणजी घाटिया बातचीत में बताते रहते थे कि महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा के दर्शन के लिए सन 1948 में वे दिल्ली गए थे। दिल्ली की सड़कों पर असंख्य लोगों की भीड़ के कारण वे सड़क के किनारे एक पेड़ पर चढ़ गए और वहां से उन्होनें गांधीजी के अंतिम दर्शन किए।
आज जब मैं उस समय की स्थितियों के बारे में विचार करता हूं तो पाता हूं कि जब झालावाड़ जिले के अन्य कस्बों के लोग निरंकुश सामंती शासन के विरुद्ध आवाज उठाने में डरते थे, बकानी के इन देशसेवकों ने जिला स्तर पर कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। श्री संपतराजजी व श्री चांदमलजी ने कई वर्षॉं तक झालावाड़ जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों को संभाला। इन सभी लोगों नें सामाजिक व शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन की प्रवृत्तियों को गति प्रदान की। इनके प्रयासों के परिणामस्वरूप बकानी मे राजनीतिक चेतना का स्तर जिले के अन्य कस्बों की तुलना में काफी उच्च रहा। बकानी के इन देशभक्तों की सेवा एवं त्याग के बारे में ये पंक्तियाँ सटीक हैं-
      तज स्वार्थ का मार्ग, अहिंसा को अपनाये,
             
शीश झुका चुपचाप पुलिस की लाठी खाये,
             
गये जेल, हथकड़ी हाथ में, कष्ट उठाये,
             
बहुत बहुत आशीष भारत माता से पाये।
अध्ययन व नौकरी के सिलसिले में कई दशकों तक देश- विदेश के विभिन्न भागों में रह कर सेवा-निवृत्ति के पश्चात अब पूर्व छात्र सेवा समिति के माध्यम से अपनी मातृभूमि बकानी से पुनः जुड़ने पर मैं पाता हूं कि स्वतंत्रता-पूर्व के राजनीतिक माहौल और वर्तमान राजनीतिक सोच में काफी अंतर आ चुका है। समय व परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण यह अंतर आना स्वाभाविक भी है। आज भी बकानी में राजनीतिक सक्रियता और जागरूकता पहले से अधिक देखने को मिलती है। आवश्यकता है अंतर्द्वंदो से ऊपर उठ कर इस राजनीतिक सक्रियता का उपयोग  बकानी क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए किया जाए। आशा है राजनीतिज्ञों की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयां पारस्परिक समन्वय बना कर जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी की उदात्त भावना से बकानी क्षेत्र के चतुर्मुखी विकास को नई गति व आयाम प्रदान करेगी

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नोट: यह लेख पूर्व छात्र सेवा समिति - राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बकानी, जिला झालावाड़ (राजस्थान) के तत्वाधान में आयोजित शताब्दी समारोह 2015 की स्मारिका में प्रकाशित हुआ था|
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शुक्रवार, 15 मई 2020

बकानी की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर


बकानी की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर
                             
- एस एन घाटिया एवं चंदन घाटिया 

[आचार्य चाणक्य ने सूत्र प्रदीप में कहा है “अर्थार्थ प्रवर्तते लोकः” अर्थात अर्थ के लिए ही लोक में प्रवृत्ति होती है और “वृत्ति मूलं अर्थ लाभः” वृत्ति (व्यवसाय/अर्थोपार्जन की क्रियाएं) आर्थिक समृद्धि का मूल है| बकानी क्षेत्र के आर्थिक, व्यापारिक एवं वाणिज्यिक परिप्रेक्ष्यों को विभिन्न दृष्टिकोणों से रूपायित करता है, यह अमूल्य आलेख श्री सत्यनारायण घाटिया द्वारा आलेखित है जो उनके विशिष्ट ज्ञान क्षेत्र के गहन प्रेक्षण एवं लेखन कौशल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि व निष्पत्ति है| स्वज्ञान, स्वाध्याय, साक्षात्कार एवं वार्ताओं पर आश्रित तथ्यात्मक संकलन व निरूपण उनका व्यक्तिगत संज्ञान है और एतदर्थ प्रामाणिकता भी स्वयं की ही है| आलेख का कलेवर वृहत होते हुए भी सारगर्भित है तथा एतद संदर्भित चिंतन के लिए नवीन आयामों को चीन्हने की प्रेरणा देता है| श्री घाटिया के परिश्रम साध्य पुरुषार्थ हेतु आभार|     _सम्पादक त्रय]    

बकानी की अर्थव्यवस्था के बारे में जब भी सोचता हूं तो मेरी बाल्यकालीन स्मृतियों की अतल गहराइयों में से  दीपावली पूजन का एक सजीव दृश्य मानस पटल पर उभर कर आता है| दुकान की गादी पर श्वेत धवल चद्दर बिछी हुई है। वहां पूजा के पाटे पर कोरा लाल-सफेद कपड़ा बिछा कर लक्ष्मी-पूजन के पारंपरिक पाने के सामने नए बही-खाते रखे हुए हैं; पीतल की दो बडी फीलसोत (दीपस्तंभ) पाटिए के दोनो और प्रज्वलित हैं; दो ताजा सांठे (गन्ने) दीवार के दोनो कोनों में खड़े किए हुए हैं; छत के कड़ों में नई ज्वार की फोंकड़ियां लगी हुई हैं और पूजन सामग्री को थाली में व्यवस्थित कर मेरे पिताजी श्री रामनारायणजी घाटिया सफेद खादी के नए धोती-कुर्ते व लाल रंग की इन्दौरी पगड़ी पहने हुए पंडित श्री बालचंदजी व्यास के आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं भी नए कपड़े पहने हुए व्यग्रता से पंडितजी की राह देख रहा हूं क्योंकि पूजन संपन्न होने के बाद ही हमे  फुलझड़ियां-पटाखे चलाने को मिलेंगे। दो-तीन बार बाज़ार के दरवाजे पर जा कर देख भी आया हूं कि अभी पंडितजी किस की दुकान पर पूजा करा रहे हैं।

दीपावली के त्योहार की तैयारियों में दशहरे के बाद से ही घर-परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य व्यस्त हो जाते थे। सब अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने घर-दुकान की सफाई-लिपाई-पुताई में लग जाते थे। धनतेरस के एक दिन पहले से गृहणियां मीठे व नमकीन गुने-शक्करपारे, खुरमे, बर्फी, लड्डू और बेसन चक्की आदि मिठाइयां बनाने में व्यस्त हो जाती थी, क्योंकि दीपावली के दूसरे दिन से ही गांव में सभी रिश्तेदारों व परिचितों के यहां मिठाइयां भेजने का सिलसिला चालू हो जाता था। सबके मन में यह होड़-सी रहती थी कि मेरे घर-दुकान का रंग-रोगन सबसे सुंदर हो, मेरे यहां के दियों की रोशनी सबसे अच्छी व सबसे ज्यादा समय तक चलने वाली हो और मेरे यहां की मिठाई सबसे स्वादिष्ट हो। स्वच्छता के प्रति इस जन-जागरूकता की पुष्टि दीपावली के पूर्व बालकों द्वारा सन्ध्याकाल में घर-घर जा गाए जाने वाले “हरनी” लोकगीत की इस पंक्ति “लीप्यो पोत्यो आंगणो, तर्र बिच्छू जाय” में भी प्रतिबिंबित होती है। इस स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के मूल में यह भावना रहती थी कि स्वच्छता, उज्ज्वल प्रकाश और स्वादिष्ट भोजन से घर में सुख-समृद्धि (लक्ष्मीजी) बनी रहती है। सभी मकानों-दुकानों के छज्जों पर मिट्टी के छोटे दियों (दीपक) की पंक्तिबद्ध लौ गली-मोहल्लों में अमावस की अंधेरी रात को भी  प्रकाशमान कर देती थी। अगले दिन बाज़ार के सभी दुकानदार दीपावली पूजन के प्रसाद के रूप में खांखरे के पत्तों के दोनों में गुड़ भर कर एक-दूसरे के यहां भेजते थे।                    

सन 1960 तक बकानी के बाज़ार में दीपावली पर्व का यह सामान्य दृश्य हुआ करता था। जन्म से किशोरावस्था तक बकानी में इन त्योहारों की स्वस्थ परंपराओं से संस्कारित हो मैं जब अध्ययन और नौकरी के सिलसिले में बाहर निकला तो मुझे देश-विदेश के कई छोटे-बड़े तथा प्रसिद्ध शहरों-कस्बों मे रहने का अवसर मिला। किंतु बकानी के दीपावली पर्व जैसी छटा कहीं देखने को नहीं मिली। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दीपावली के त्योहार की इन सामान्य-सी बातों का अर्थव्यवस्था से क्या संबंध है? आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्र में अध्ययन व अनुभव की लंबी शृंखला के पश्चात अब मेरी मान्यता दृढ़ होती जा रही है कि किसी भी स्थान पर मनाए जाने वाले त्योहारों का स्तर वहां की अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता और सामाजिक-सांस्कृतिक संपन्नता का द्योतक होता है। इस संदर्भ में दीपावली पर प्रचलित सभी परंपराओं का प्रतीकात्मक अर्थ भी अब सुस्पष्ट  होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, दीपावली पूजा के पाने को ही लें। जीवन में अधिक-से-अधिक धन कमाना हर सांसारिक व्यक्ति का लक्ष्य होता है। अतः दीपावली के त्योहार की परंपरा विकसित हुई, जिसमें धन-समृद्धि की देवी लक्ष्मीजी की पूजा-अर्चना की जाती है। लक्ष्मीजी के साथ गणेशजी को भी स्थापित किया गया है ताकि किसी भी कार्य की सफलता में विघ्न-बाधायें नहीं आएं।  दीपावली पूजन के पाने में गणेशजी को स्थापित करने का एक प्रतीकात्मक कारण यह भी है कि रिद्धि व सिद्धि गणेशजी की पत्नियां हैं और सिद्धि से शुभ एवं रिद्धि से लाभ उनके पुत्र हैं। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जहां उल्टे-सीधे तरीके से कमाए गए धन के देर-सबेर दुष्परिणाम देखे जाते हैं। भारतीय संस्कृति में धनोर्पाजन की प्रक्रिया में साधनों की शुद्धता को महत्व दिया गया है, जीवन में हमें धन-लाभ हो पर वह लाभ हमारे लिए शुभ भी हो। अतः रिद्धि-सिद्धि और शुभ-लाभ के स्वामी गणेशजी का पूजन भी लक्ष्मीजी के साथ किया जाता है। पूजा के पाने में विद्या की देवी सरस्वतीजी को भी स्थापित किया गया है। जनमानस में यह धारणा प्रचलित है कि लक्ष्मीजी और सरस्वतीजी अपनी स्वभावगत विशेषताओं के कारण एक साथ नहीं रह सकती हैं। लेकिन दीपावली-पूजन के पाने में हम इन दोनों देवियों को लोकमंगल हेतु साथ पाते हैं। दीपावली ही एक ऐसा पर्व है जब लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और गणेशजी की संयुक्त पूजा-अर्चना के माध्यम से हम प्रार्थना करते हैं कि हमारे ऊपर इन तीनों का आशीर्वाद बना रहे, हम विद्या से सुसंस्कृत हो जीवन में निरंतर शुभ लाभ प्राप्त करते हुए सुख-समृद्धि के पथ पर अग्रसर होते रहें। गहराई में जाने पर, हम पाते हैं कि दीपावली-पूजा के इस पाने में हमने सृष्टि के तीनों नियंताओं (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) के परिवार के सदस्यों को प्रतिनिधित्व दे कर इस ज्योति-पर्व को सामाजिक स्तर पर पारिवारिक उत्सव का रूप दे दिया है।          

इस पौराणिक पक्ष से हट कर, यदि शुद्ध अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों की दृष्टि से देखें तो किसी भी स्थान की अर्थव्यवस्था का स्तर वहां के उत्पादन पर निर्भर करता है और उत्पादन के मूल साधन हैं –
1. भूमि
2. श्रम
3. पूंजी
4. उद्यमी 

भूमि के अंतर्गत सभी प्राकृतिक संसाधन जैसे कृषि, गैर-कृषि भूमि, नदी-नाले, वन व पहाड़ आदि हैं। बकानी की अर्थव्यवस्था के मूल आधार को समझने के लिए हमें यहां की भौगोलिक स्थिति, जलवायु और भू-संरचना को ध्यान में रखना होगा। बकानी मालवा के पठार पर स्थित है। मुकुन्दरा पहाड़ी की दक्षिणी भुजा (अधिकतम ऊंचाई 1406 फीट) बकानी क्षेत्र में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व दिशाओं में फैली हुई है। यहां की प्रमुख नदी कालीसिंध है जिसमे कई छोटी नदियां-नाले इसके पूर्वी किनारे पर मिलते हैं। बकानी क्षेत्र में वर्षा का वार्षिक औसत 37 इंच है जो जिले व राज्य के औसत से अधिक है। किंतु वर्षा के जल को संचित करने हेतु कोई बांध व नहरें न होने के कारण सिंचाई व पेय जल के लिए आरंभ से ही कुओं पर निर्भरता अधिक रही है। बकानी ग्राम में पीने के पानी के लिए बोहरे के कुए और मोमिनों के कुए का महत्व सर्वविदित है। गर्मियों में पीने के पानी की किल्लत के बावजूद, बकानी ग्राम सौभाग्यशाली है कि यहां का धरातलीय जल विकार-रहित है और 10 मीटर से कम गहराई पर ही जलस्तर प्राप्त हो जाता है। कालीसिंध नदी के पूर्वी किनारे का क्षेत्र मैदानी है जहां कुछ भूरापन लिए हुए काली दोमट मिट्टी पाई जाती है, जो सभी प्रकार के खाद्यानों, सब्ज़ियों और कपास, अफीम, धनिया, तिलहन व गन्ने जैसी नकद फसलों (Cash Crops) के लिए अत्यंत उपयुक्त है। बकाइन के पेड़ अधिक होने के कारण यह ग्राम बकानी नाम से जाना जाने लगा। ज्ञानमंडल वाराणसी के बृहत हिंदी कोश के अनुसार “बकाइन” अथवा “बकायन” “नीम की जाति का एक पेड़ होता है जिसके फल, फूल, पत्तियां आदि दवा के काम में आते हैं, महानिंब।“

अर्थव्यवस्था का दूसरा प्रमुख घटक श्रम शक्ति है। यह भी एक प्रकार से प्राकृतिक संसाधन ही है क्योंकि कार्यशील जनसंख्या की उपलब्धता स्थान-विशेष की भौगोलिक स्थितियों पर निर्भर  होती है। जहां स्थानीय श्रम शक्ति की कमी होती है, वहां श्रमिक दूसरे स्थानों से आते हैं। बकानी में आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त श्रम शक्ति उपलब्ध है। 

शेष दो साधन पूंजी उद्यमी (Entrepreneur) मानव-निर्मित साधन हैं। उत्पादन के इन साधनों में उद्यमी सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह उत्पादन के सभी साधनों का संयोजन कर उन्हें धनोर्पाजन योग्य बनाता है। कुछ-न-कुछ प्राकृतिक संसाधन तो सभी स्थानों पर होते हैं, किंतु जहां कुशल उद्यमी होते हैं वे उन संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करते हैं, जिससे सुदृढ़ आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने का निर्माण होता है। बकानी ग्राम के साथ भी कुछ ऐसा ही सुखद संयोग रहा कि भौगोलिक दृष्टि से यहां कृषि व संबद्ध कार्यों के लिए प्राकृतिक संसाधन एवं श्रम भरपूर मात्रा में उपलब्ध थे। आवश्यकता थी कुशल उद्यमियों की जो इन साधनों का व्यावसायिक दोहन कर अर्थव्यवस्था को गति प्रदान कर सकें। और, बकानी में ये उद्यमी आए मरुभूमि मारवाड़ से जो अपनी उद्यमिता के लिए प्रसिद्ध है!   

आरंभ में बकानी छोटा सा गांव था और कृषि योग्य परिवेश के कारण यहां मूलतः कृषक परिवारों की ही बस्ती थी। कृषकों में भी, उस समय बकानी में काछी (कुशवाह) समाज का बाहुल्य था। इसी प्रकार समीपस्थ स्थित  थोबड़िया गांव में कुल्मियों (पाटीदारों) और देवर गांव में गूजरों की अधिकता थी। किसी एक समुदाय विशेष के बाहुल्य की प्रवृत्ति लगभग सभी गांवों में देखी जा सकती है। बकानी में उस समय अधिकांश आबादी गांव के दक्षिण-पूर्वी छोर पर वर्तमान सारोतिया के आसपास बसी हुई थी। बकानी की आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था का वर्तमान स्वरूप लगभग 300 वर्ष पूर्व विकसित होना आरंभ हुआ जब मारवाड़ क्षेत्र में स्थित नागौर जिले के मेड़ता नगर से माहेश्वरी वैश्य समाज के कुछ परिवार काफी लंबी यात्रा व कई स्थानों पर रहने के बाद बकानी के शांत वातावरण और कृषि बाहुल्य क्षेत्र को अपने व्यापार के अनुकूल पा कर यहां स्थायी रूप से बस गए। इतिहास के उस काल-खंड में, सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण तत्कालीन नागौर राज्य पर अधिकार करने हेतु चौहान, राठौड़, सीसोदिया, मंगोलों, तुर्कों व मुगल वंश के शासकों के बीच आए दिन होने वाले सत्ता-संघर्ष के कारण मार-काट, लूट-पाट होती रहती थी। इसके कारण अशांत व असुरक्षित वातावरण में सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। विशेष रूप से, व्यापारी वर्ग के लिए व्यापार-व्यवसाय करना कठिन हो गया था। जनश्रुतियों के अनुसार, लगभग 500 वर्ष पूर्व वहां के तत्कालीन शासकों से विवाद के कारण इन माहेश्वरी परिवारों ने मेड़ता छोड़ कर व्यापारिक दृष्टि से सुरक्षित स्थान की खोज में अपनी कुलदेवी फलौदी माता की शोभायात्रा के साथ मालवा की और प्रस्थान किया। मेड़ता के होने के कारण यह समुदाय बाद में मेड़तवाल वैश्य कहलाया। कालांतर में, इन मेड़तवालों का अपने मूल माहेश्वरी समुदाय से कोई संबंध नहीं रहा और अब ये लोग वैश्य समाज के एक स्वतंत्र घटक के रूप में जाने जाते हैं। संवत 1601 में पुष्कर से निकल  विभिन्न मार्गों द्वारा भ्रमण करते हुए भानपुरा, रावतभाटा, मोहना, गढ़गागरोन, झालावाड़, सुकेत होते हुए संवत 1796 (ईस्वी सन 1740) में खैराबाद में कुलदेवी फलौदी माता को देवरा (स्थानक) में स्थापित किया। कुछ दशकों बाद, वर्तमान फलौदी माता मंदिर का निर्माण आरंभ किया जो वहां लगे  शिलालेख के अनुसार संवत 1848 में पूर्ण हुआ।इस प्रकार, संवत 1601 में पुष्कर से प्रस्थान के बाद और संवत 1796 में फलौदी माताजी के खैराबाद में स्थापित होने के बीच की अवधि में मेड़तवाल समाज के परिवार शनैः-शनैः अपनी सुविधा और परिस्थितियों के अनुसार हाड़ौती व मालवा के विभिन्न स्थानों में बसते गए। इसी क्रम में मेड़तवाल समाज के कुछ परिवार बकानी ग्राम में आ कर बस गए।  

इसी संक्रमण काल में अन्य जातियों के परिवार भी नागौर जिले से निकल गए थे। जैसे कि, नागौर जिले के ही बाप गांव से कुछ गुर्जरगौड़ ब्राहमण परिवार भी आए थे। इसी प्रकार लाडपुरा गांव (मेड़ता से 45 कि.मी.), तहसील डेगाना जिला नागौर से भारद्वाज गोत्रीय गूर्जरगौड़ ब्राहमण श्री कुशालचंदजी के परिवारजन भी मारवाड़ से चल कर नैनवा आ गए थे। इनका एक परिवार सेमली होता हुआ बकानी आ कर बस गया जिसके वंशज वर्तमान आचार्य परिवार के सदस्य हैं। बकानी के ब्राह्मण समुदाय में कुछ परिवार “जोधपुरा” कहलाते हैं। बताया जाता है कि गुजरात के जोधपुर स्थान से आने के कारण ये जोधपुरा कहलाए जाने लगे। किंतु एक अन्य जनश्रुति के अनुसार जोधपुरा ब्राहमण परिवार मूल रूप से पाली जिले के थे जहां उन्हें राज्य द्वारा जागीर प्राप्त थी। बाद में, राजा से विवाद होने पर ये लोग राजगढ़ (म.प्र.) होते हुए झालावाड़ जिले में आ बकानी व अन्य स्थानों में बस गए।

न केवल वैश्य एवं ब्राहमण परिवार अपितु कुछ राजपूत परिवार नागौर जिले से निकल कर बकानी क्षेत्र में आ कर बस गए थे| इनमे से बाद में बकानी के किलेदार भी बने| लुहारी कार्य के लिए प्रसिद्द मोडी के लुहार भी नागौर जिले से ही बकानी क्षेत्र में आ कर स्थापित हुए थे|           

मेडतवालों के बकानी आने के लगभग 50 वर्ष पश्चात जिला नागौर के मेड़ता कस्बे से ही चौथमलजी तातेड़ और ग्राम बोरावर (तहसील परबतसर) जिला नागौर से बाघमलजी सिंघवी भी बकानी में व्यापार-व्यवसाय के लिए आ गए। ये दोनो परिवार रिश्ते में साले (तातेड़) व बहनोई (सिंघवी) थे। आरंभ में ये श्री ओंकारलालजी संगी (मेड़तवाल) के नोहरे-मकानों में रहे। श्री ओंकारलालजी संगी के बारे में प्रसिद्ध है कि कोटा दरबार के बकानी आने पर उन्होनें महाराज की पधरावणी के लिए सोने की मोहरें बिछाई थी जिन्हें बाद में महाराज को भेंट कर दिया था। संगीजी की बावड़ी अपनी स्थापत्य शैली और विशालता के लिए बकानी क्षेत्र में आज भी प्रसिद्ध है। कोई संतान नहीं होने के कारण संगी परिवार ने खिलचीपुर के अपने संबंधी को गोद लिया था। किंतु बाद में वे बकानी नहीं रहे और संगी परिवार के मकान-जमीन को बेच कर वापस चले गए।        

श्री चौथमलजी तातेड़ के पुत्र चंपालालजी तातेड़ के संतान न होने से उन्होने मेड़ता से अपने नजदीकी रिश्तेदार श्री हीरालालजी तातेड़ को बकानी बुला कर गोद लिया था। यही श्री हीरालालजी तातेड़ ग्राम पंचायत की स्थापना होने पर बकानी के प्रथम सरपंच बने थे। इससे स्पष्ट है कि बकानी में स्थापित होने के बाद भी 2-3 पीढ़ी तक बकानी के इन परिवारों का मारवाड़ से संपर्क बना रहा व धीरे-धीरे बकानी के सुरक्षित वातावरण की जानकारी पा कर ओसवालों की अन्य गोत्रों के परिवार भी यहां आ कर स्थापित होते गए।

नागौर जिले से आए हुए ये मारवाड़ी (ओसवाल व मेड़तवाल) परिवार अफीम और मनौती (Money Lending) का व्यवसाय करते थे। इन लोगों ने झरोखे वाले भव्य भवन व दुकानें निर्मित की जो आज भी बकानी की समृद्धि के प्रतीक के रूप में पुराने बाज़ार में स्थित हैं। इन भवनों की निर्माण शैली में मारवाड़ की प्राचीन हवेलियों की झलक है। दुकानों की बनावट से स्पष्ट है कि ये दुकानें खुदरा व्यापार के लिए नहीं अपितु सेठ-साहूकारों की पैढ़ियों के रूप में बनवाई गई थी, जहां गादी-तकिए लगे रहते थे और छत में हाथ से खींचने वाला पंखा लगा रहता था। इन सभी सेठ-साहूकारों के मनौती (लेन-देन) वाले किसान परिवार व गांव निश्चित थे। किसान हर वर्ष फसल आने पर बैसाख सुदी पूनम तक उसे अपने पारिवारिक साहूकार को बेच पिछले ऋण का भुगतान कर देते थे। फिर, आषाढ़ मास से खाद-बीज व घरेलू कार्यों के लिए वर्ष-पर्यंत इन सेठ-साहूकारों से आवश्यकतानुसार उधार लेते रहते थे। लेन-देन के सिलसिले में किसान बकानी आते थे तो रहने-खाने की व्यवस्था उनके साहूकार के नोहरे में होती थी। साहूकार की ओर से उन्हें आटा-दाल आदि सामग्री दी जाती थी जिससे दाल-बाटी बना कर किसान नोहरे में रात्रि विश्राम करते थे।          

यह उल्लेखनीय है कि रीछवा, रटलाई और भालता ग्राम बकानी से अधिक प्राचीन और विकसित कस्बे थे। आरंभ में कोटा रियासत की तहसील रीछवा में थी जिसके अंतर्गत बकानी ग्राम आता था। मारवाड़ से आए हुए मेड़तवाल, ओसवाल व ब्राह्मण परिवारों द्वारा बकानी को अपनी कर्मस्थली बनाने के पश्चात इस स्थान का विकास तेजी से हुआ और व्यापार-व्यवसाय की दृष्टि से इसने इन तीनों कस्बों को पीछे छोड़ दिया। कोटा रियासत द्वारा बकानी के सामरिक महत्व और समृद्ध व्यापारिक स्थिति को देखते हुए परकोटा और किला बनवाया तथा रीछवा से तहसील को हटा बकानी में तहसील स्थापित की गई। इसके साथ ही यहां पुलिस थाना, अस्पताल व स्कूल बनाया गया। यह एक अलग बात है कि कई दशकों तक तहसील रहने के बाद राजनीतिक कारणों से सन 1962 में बकानी तहसील को उप-तहसील बना दिया और तब से बकानी झालरापाटन तहसील के अन्तर्गत है। किले के निर्माण से पूर्व बकानी में एक इमारत थी जिसे जूनी गढ़ी कहते हैं जिसमें पुलिस रहती थी और यहां कैदियों को लकड़ी की कोड़ा-बेड़ी में बांध कर रखा जाता था। परकोटे का निर्माण होने के पश्चात रात में बाज़ार का दरवाजा बंद होता था। ग्राम पंचायत बनने के बाद सन 1944 में चूने के चबूतरे से लेकर बाज़ार के दरवाजे तक खुरंजे का निर्माण हुआ। बिजली की सुविधा नहीं होने के कारण गलियों-रास्तों मे खंभों पर लालटेन लगाए हुए थे, जिनमें ग्राम पंचायत का कर्मचारी संध्या के समय सफाई कर तैल-बत्ती की व्यवस्था करता था। समसामयिक जानकारी के लिए ग्राम पंचायत ने पुस्तकालय आरंभ किया और साथ में बाज़ार के दरवाजे पर लाउड स्पीकर से रात को 8 बजे की रेडियो न्यूज प्रसारित की जाती थी।      

सन 1850 के पश्चात अगले 100 वर्षों तक बकानी की अर्थव्यवस्था उत्तरोत्तर प्रगति करती गई और इसे बकानी का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। नि:संदेह, इस अवधि में प्रथम विश्व युद्ध (1914-18), द्वितीय विश्व युद्ध (1938-42) और सन 1930 की वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण कई उतार-चढ़ाव भी देखने को मिले। किंतु बकानी में मारवाड़ से आए इन व्यवसायियों की उद्यमशीलता और संचित पूंजी के कारण यहां की आर्थिक स्थिति काफी सुदृढ़ हो चुकी थी और सभी प्रकार के झंझावातों का सामना करने में सक्षम थी। आनुवांशिक रूप से इन लोगों में व्यावसायिक कौशल कूट-क़ूट कर भरा हुआ था, क्योंकि प्रागैतिहासिक काल में जोधपुर संभाग में विशाल समुद्र हिलोरें लेता था और इस समुद्री मार्ग से इन  व्यापारियों के पूर्वज जहाजों में माल भर कर व्यापार के लिए अरब, अफ्रीकी व यूरोपीय देशों तक जाया करते थे। बचपन में हम कहानी-किस्सों में सात समंदर पार व्यापार करने जाने की जो बातें सुनते थे वह एक वास्तविकता थी। कालांतर में, भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण वह विशाल सागर यहां से दूर हटता गया और अपने पीछे रेगिस्तान छोड़ गया, जिसे वर्तमान में थार का मरुस्थल कहते हैं। इसके पश्चात भौगोलिक (अकाल) व राजनीतिक (युद्ध) कारणों से मारवाड़ क्षेत्र से जनसंख्या के पलायन की प्रक्रिया आरंभ हुई जो कई सहस्त्राब्दियों से निरंतर चलती आ रही है। मारवाड़ से व्यावसायिक प्रतिभा (Business acumen), उद्यमिता और पूंजी का पलायन जहां एक ओर कलकत्ता और बम्बई जैसे व्यापारिक केंद्रों के विकास का हेतु बना, वहीं इसके कारण बकानी जैसे दूरस्थ सुषुप्त गांव (sleeping village) भी स्थानीय स्तर के हिसाब से सक्रिय व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र बने और समृद्धि के पथ पर अग्रसर हुए।                        
बकानी का प्रथम बृहद उद्योग: बकानी में कपास की काफी पैदावार होती थी किंतु यहां जिनिंग फ़ैक्टरी न होने के कारण रूई बनवाने के लिए यहां से कपास को तीनधार या माचलपुर के जीण (जिनिंग फ़ैक्टरी) पर बैलगाड़ियों से ले जाना पड़ता था जो कि श्रमसाध्य होने के साथ जोखिमभरा कार्य हुआ करता था। कहा जाता है कि एक बार तीनधार के जीण पर कपास को लोढ़ाने को लेकर हुए विवाद से उत्पन्न स्थिति को व्यवसाय की एक नई संभावना मानते हुए श्री भैरुलालजी घाटिया ने पहल कर सन 1926 में बकानी में जिनिंग फ़ैक्टरी की स्थापना की परियोजना बनाई। उन्होने कोटा राज्य से थोबड़िया के माल में जमीन आवंटित कराई। बंबई से बॉयलर व अन्य मशीने रेल मार्ग से रामगंजमंडी लाए और फिर वहां से सड़क मार्ग से बैलगाड़ियों द्वारा बकानी लाए। जीण सन 1927 में आरंभ हो गया था और जीण की प्रबंध-व्यवस्था श्री भैरुलालजी घाटिया के जिम्मे थी। वित्तीय दृष्टि से यह एक संयुक्त उपक्रम था जिसमें विभिन्न व्यवसायियों की हिस्सेदारी निम्नलिखित थी:
थोबड़िया (बकानी) में सन 1927 में स्थापित जिनिंग फ़ैक्टरी में हिस्सेदारी
1.       मे. रत्तीराम भैरुलाल घाटिया, बकानी           5 आना हिस्सा (31.25%)
2.       मे. बनवारीलाल बिट्ठलदास माहेश्वरी, इकलेरा   5 आना हिस्सा (31.25%)
3.       मे. कन्हैयालाल इंदरमल बोथरा, बकानी        2 आना हिस्सा (12.50%)
4.       मे. बच्छराज गेन्दमल तातेड़, बकानी          2 आना हिस्सा (12.50%)
5.       मे. पन्नालाल भीकमचंद बोथरा, बकानी        2 आना हिस्सा (12.50%)

सन 1930 की आर्थिक मंदी (Great Depression) के भीषण दौर में रूई की कीमतें धराशायी होने से काफी नुकसान होने पर जीण को बंद करना पड़ा। बाद में, श्री चांदमलजी बोथरा ने अन्य भागीदारों का हिस्सा खरीद सन 1954-55 इसे पुनः चालू किया, पर बकानी क्षेत्र में कपास की फसल का रकबा कम होते जाने से यह जीण नहीं चला व मशीनरी आदि बेच दी गई। इस फ़ैक्ट्री की जमीन का स्वामित्व अभी श्री माणकचंदजी ज्ञानचंदजी बोथरा के पास है।     

बकानी के व्यापारिक समुदाय की प्रतिष्ठा का एक उदाहरण यह भी है कि ग्राम पंचायत की स्थापना होने से पूर्व गांव के लोगों के आपसी विवादों का निपटारा सर्वश्री कंवरलालजी घाटिया, इन्दरमलजी बोथरा व चन्दरलालजी घाटिया करते थे। उनका फैसला सर्वमान्य होता था। इसी प्रकार दीपावली के त्योहार के बाद रियासत की ओर से नाज़िम, थानेदार व अन्य अधिकारी बाज़ार में रामा-शामी करने के लिए निकलते थे। इनका स्वागत श्री हीरालालजी बच्छराजजी तातेड़ की दुकान पर होता था।

कानी के वैश्य समुदाय की एक विशेषता यह भी है कि यही एक ऐसा कस्बा है जहां मेड़तवालों और ओसवालों के अलावा वैश्य समाज की अन्य जातियों के परिवार जैसे दिगंबर जैन, माहेश्वरी, पोरवाल, विजयवर्गीय, पालीवाल और अग्रवाल इत्यादि कार्यरत नहीं हैं। अपवाद स्वरूप केवल एक दिगंबर जैन श्रीमाल परिवार और एक हिम्मतगढ़ वाले अग्रवाल परिवार हैं। दो परिवार खत्रियों के भी थे – श्री बालचंदजी व श्री किशनलालजी खत्री। जबकि रीछवा, रटलाई और भालता में वैश्य समाज के सभी घटक व्यापार-व्यवसाय में कार्यरत थे। श्रीमाल दिगंबर जैन परिवार के प्रसंग में यह उल्लेखनीय है कि श्री भूरामलजी श्रीमाल लगभग 180 वर्ष पूर्व नैनवा (बून्दी जिले) से बकानी के श्री सांवरलालजी तातेड़ की सहायता से यहां आए थे। श्री भूरामलजी के पुत्र श्री देवलालजी यहां के पहले व्यक्ति थे जो असिस्टेंट रेवेन्यू कमिश्नर जैसे उच्च पद पर पहुंचे। श्री देवलालजी के दत्तक पुत्र श्री नरोत्तमराजजी (नमजी) ने जैन भजन गायक के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। रेवेन्यू विभाग के उच्च पद के प्रसंग में बकानी के दो व्यक्तियों श्री दीनदयालजी शर्मा  एवं श्री रामनारायणजी कुशवाह का उल्लेख भी आवश्यक है जो  मध्यप्रदेश में संयुक्त कलेक्टर के पद से सेवा निवृत्त हुए।
मारवाड़ से आए हुए इन परिवारों ने न केवल अपने आवास व व्यवसाय के लिए भव्य भवन बनाए अपितु मंदिर, स्थानक व रामद्वारा आदि भी स्थापित किए। मेड़तवालों ने एक मंदिर बोहरे के कुए के पास बनवाया था जिसे बंशीवाले के मंदिर के नाम से जाना जाता है। इनका एक रामद्वारा भी है। मे. सालगराम देवलाल जुलानिया परिवार ने भी एक निज मंदिर अपने मकान के पास बनाया हुआ है। श्री हंसराजजी तातेड़ की एक धर्मशाला भी वर्तमान में है।      

जैन मंदिर की स्थापना: ओसवाल परिवारों के बकानी आने के लगभग 100 वर्ष बाद बैसाख सुदी तीज संवत 1928 को वर्तमान जैन मंदिर की नींव रखी गई थी। मंदिर के शिलालेख के अनुसर राणा पृथ्वीसिंहजी ने सावन सुदी तीज संवत 1929 को नौ बीघा तीन बिस्वा जमीन जैन मंदिर के लिए बखशीश दी थी। इस भव्य मंदिर का निर्माण संवत 1945 में पूर्ण हुआ।

बकानी की प्रथम धर्मशाला: संवत 1975 (सन 1919) में श्री भैरुलालजी घाटिया ने बकानी के हाट-चौक में स्थित स्वयं के स्वामित्व की खसरा नं 616 की 3 बिस्वा व खसरा न. 617 की 5 बिस्वा भूमि पर उनकी पूज्य माताजी की पुन्य स्मृति में एक धर्मशाला का निर्माण सार्वजनिक हित में स्वयं के खर्चे से करवाया था। इसका निर्माण संवत 1977 (सन 1921) में पूर्ण हो गया था। यह धर्मशाला यात्रियों के ठहरने, शादियों व अन्य सामाजिक कार्यों के लिए काम आती थी। सन 1940 में श्री भैरुलालजी घाटिया की स्थिति ठीक न रहने के कारण उन्होने इसे ग्राम पंचायत बकानी को प्रबंध-व्यवस्था हेतु सुपुर्द की थी। बाद में, इस धर्मशाला भवन का उपयोग एक सरकारी स्कूल के लिए होने लगा। सन 1980 में सरपंच ग्राम पंचायत बकानी नें जनता के विरोध के बावजूद  इस धर्मशाला के सार्वजनिक उपयोग की उपेक्षा कर यहां पक्की दुकानें बना उन्हें किराये पर दे इसका कमर्शियल उपयोग करना आरंभ कर दिया और ग्राम पंचायत कार्यालय का अनाधिकृत निर्माण करा लिया। यह दुर्भाग्य की बात है कि निहित स्वार्थ और क्षुद्र राजनीति के कारण जनहितार्थ बनाई गई इस धर्मशाला को समाप्त कर दिया गया। ग्राम पंचायत के इस कृत्य से जहां एक सामुदायिक सुविधा समाप्त हुई, वहीं बकानी की एक प्राचीन धरोहर भी लुप्त हो गई।           

मारवाड़ से आए इन व्यवसायी परिवारों ने बकानी आने के बाद मनौती के अलावा अफीम के निर्यात से भी काफी धन अर्जित किया। बकानी से अफीम बम्बई भेजी जाती थी जिसे वहां से समुद्री मार्ग द्वारा चीन भेजा जाता था। बकानी के कुछ साहूकारों की हुंडियां देश के कई नगरों में वहां के स्थानीय साहूकारों के यहां मान्य थी। तीर्थ यात्रा पर जाने वाले लोग बकानी के साहूकारों के यहां रुपये जमा करा उनसे हुंडियां लेते थे और फिर इन हुंडियों को परदेस में सिकरा कर आवश्यकतानुसार रुपये प्राप्त करते थे।

समय के साथ-साथ, बकानी में अफीम व मनौती के अलावा अन्य व्यापार-व्यवसाय भी विकसित हुए। उदाहरण के लिए किराने के व्यापार में दो परिवारों की अच्छी ख्याति थी:
1.       मे. शिवनारायण मथुरालाल थोदिया -  ये गोन्द के व्यापार के लिए भी जाने जाते थे।
2.       मे. कनकमल मन्नालाल भंडारी - गरवाडा के किसान परिवार अपना लेनदेन इनके यहां करते थे।  

किराने और कपड़े के व्यापार में कई मेडतवाल व ओसवाल परिवार संलग्न थे। इसके अतिरिक्त, दो ब्राहमण परिवारों के नाम भी उल्लेखनीय हैं – श्री लक्ष्मीनारायणजी द्विवेदी और श्री गोरधनलालजी। यहां देशी घी के कई व्यापारी थे क्योंकि बकानी का घी अपनी उत्तम क्वालिटी के कारण हाड़ौती व मालवा में प्रसिद्ध था।

बकानी में एक दाऊदी बोहरा परिवार भी था, जिनकी बोहरा के कुए के पास दुकान थी। इसी प्रकार कुछ   मुसलमान परिवार भी व्यापार में संलग्न थे जिनमे फकीर मोहम्मदजी का नाम उल्लेखनीय है। अधिकांश मुसलमान परिवार हस्तशिल्प व्यवसाय जैसे कि लखारे, नीलगर, पिंजारे, भड़भूंजे इत्यादि कार्यों में संलग्न थे। बकानी गांव की तीन दिशाओं (पूर्व, दक्षिण व पश्चिम) में तिंदु की घनी राड़ियों (जंगल) से घिरा होने के कारण यहां तेंदू पत्ते के कार्य से भी कई लोगों को रोजगार मिलता था। बकानी की सामाजिक व्यवस्था की यह विशेषता रही है कि यहां विभिन्न जाति-समुदायों के बीच समरसता व सौम्य भाव रहा है और सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ देते थे।

बकानी का प्रथम सुपर स्टोर: श्री रघुनाथजी सोनी (माथन्यावाले) जो स्वयं तो शिक्षक थे पर उनके दो पुत्रों ने मे. मुरलीमनोहर वंशगोपाल के नाम से बाज़ार के दरवाजे के पास किराये की कवेलूपोश दुकान में जनरल स्टोर आरंभ  किया। उनके अथक परिश्रम व व्यावसायिक कौशल से इसका आशातीत विस्तार हुआ। इनके यहां किराना, मनिहारी, होजरी, कपड़े, स्कूली पुस्तकें, स्टेशनरी, दवाइयां, अखबार, हार्डवेयर, चप्पल-जूते आदि सभी वस्तुयें मिलती थी। इस फर्म की विशेषता यह थी कि सभी वस्तुयें लागत-कीमत में एक निश्चित दर से लाभ जोड़ कर बेची जाती थी। इस कारण लोगों में इस फ़र्म की साख स्थापित हो गई। लगभग 65 वर्ष पुराने उस उद्यम के बारे मे सोचने पर आश्चर्य होता है कि जिस समय सुपर स्टोर की कोई अवधारणा नहीं थी, इन सोनी बंधुओं ने इसे सफलतापूर्वक विकसित कर बकानी के व्यापरिक जगत में एक कीर्तिमान स्थापित किया।

गन्ने की चर्खियां: बकानी क्षेत्र में गन्ना बहुतायत से होता था। अतः गन्ने को पेलने के लिए उस समय “चर्खी” मशीन विकसित हुई थी। इसमें व्यवसाय की संभावना को देख लगभग सभी साहूकार अपने यहां स्वयं के उपयोग और किसानों को किराए पर देने के लिए 2-4 चर्खियां अवश्य रखते थे, किंतु किराये की चर्खियों के लिए दो फर्में विशेष रूप से प्रसिद्ध थी:
1.       मे. सालगराम देवलाल जुलान्या
2.       मे. जड़ावचंद भीकमचंद बोथरा
मे. सालगराम देवलाल जुलान्या के व्यवसाय की एक विशेषता यह भी थी कि सारे गाड़लिये लुहार व मोड़ी के लुहार अपना वित्तीय लेनदेन इनके यहां ही करते थे।

प्रसंगवश, यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि आरंभ में बकानी का मुख्य बाज़ार बड़े मंदिर के चौक में था। फिर जैसे-जैसे मारवाड़ से परिवार आते गए, बाज़ार पंचायत के दरवाजे तक बढ़ा और तत्पश्चात जनसंख्या में वृद्धि के कारण बढ़ती हुई मांग की पूर्ति के लिए दुकाने पंचायत के दरवाजे के नीचे बनती गई, टीकमचंदजी की बाड़ी में भी दुकानें बन गई। अब तो बकानी का बाज़ार हाट चौक को पार करता हुआ सभी ओर फैलता जा रहा है।

आरंभ में, यहां उद्योगों के नाम पर पारंपरिक हस्तशिल्प (सुथारी, लुहारी, चर्मकारी व कुम्हारी आदि) कार्य ही होते थे। मशीन-आधारित लघु उद्योगों में सर्वप्रथम लखमीचंदजी बाफना के नोहरे में मांगीलालजी मिस्त्री ने आटा-चक्की आरंभ की थी। फिर, आत्मासिंहजी जगन्नाथजी पंजाबी, रिद्धकरणजी सिंघवी और दीपचंदजी जुलानिया आदि ने आटा-चक्कियां लगाई थी। वर्तमान में यद्यपि कोई बड़ा उद्योग नहीं हैं, पर स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप कई लघु उद्योग संचालित हो रहे हैं। बकानी में सबसे पहली बस मोड़ी के लुहार ने खरीदी थी और पहला ट्रक श्री नंदलालजी घाटिया ने खरीदा था। 

कुछ और नाम भी उल्लेखनीय हैं जो अपने कार्य-विशेष के कारण प्रसिद्ध थे। आतिशबाजी के लिए श्री रिद्धकरणजी सिंघवी का नाम उल्लेखनीय है। केरोसीन तेल का लाइसेंस भायाजी सूरजमलजी तातेड़ के पास था और शनिवार को हाट में चबूतरे के पास जब वे ड्रमों में तेल भर कर बैठते थे तो ग्राहकों की लंबी लाइन लग जाती थी। मिठाई के मामले में श्री बालचंदजी खत्री की दुकान प्रसिद्ध थी। बाद में, श्री अमरलालजी छीपा और श्री भवानजी काछी का कलाकंद भी प्रसिद्ध हुआ। श्री दीपचंदजी छीपा के सेव-पपड़ी प्रसिद्ध थे। सब्ज़ियों व फलों के लिए ख्वाजूजी कूंजड़ा के कारण दरवाजे का बाज़ार गुलजार रहता था।

सांपों से सभी को डर लगता है और इस डर को दूर करने के लिए बकानी में सर्प विशेषज्ञ शकूरजी का नाम उल्लेखनीय है। किसी के भी यहां सांप दिखता था तो तुरंत शकूरजी को बुलाया जाता था, वे आते और सांप को पकड़, मटके में बंद कर जंगल में छोड़ आते थे। उनके बाद, बाबूखांजी इस कार्य को करने लगे। पथरीला इलाका होने के कारण बकानी में विशेष रूप से तालाब के किनारे, बिच्छू बहुत पाए जाते थे जिन्हें किशोर बालक मनोरंजन के लिए पकड़ कर माचिस की डिब्बी में बंद कर रखते थे।                          

साप्ताहिक हाट: शनिवार का साप्ताहिक हाट बकानी की सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का प्रतीक है और इसका हाड़ौती-मालवा में आसपास स्थित सभी गांवों-कस्बों के हाटों में अग्रणी स्थान है। इसके दो मुख्य  कारण हैं। प्रथम, बकानी के आसपास 5-7 किलोमीटर के दायरे में कई छोटे-छोटे गांव स्थित हैं जहां के निवासीयों के लिए कृषि व संबद्ध उत्पादों को बेचने और अपनी घरेलू आवश्यकताओं का सामान खरीदने के लिए बकानी का हाट सुविधाजनक है। द्वितीय, बकानी के स्थानीय व्यापारियों की अच्छी साख है। यह हाट पशुओं के क्रय-विक्रय के लिए भी प्रसिद्ध है। ग्राम पंचायत ने बकानी में (लाल माताजी के मैदान में) मेला लगाने का भी प्रयास किया था। पर यह प्रयास  सफल नहीं हुआ क्योंकि यहां हाट के माध्यम से जनसमुदाय की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है। यह संतोष की बात है कि आधुनिक काल में भी बकानी के साप्ताहिक हाट का व्यापारिक महत्व कम नहीं हुआ है और इसने एक प्रकार से साप्ताहिक मिनी मेले का रूप ले लिया है।                 

इस प्रकार विगत 300 वर्षों की यात्रा में बकानी ग्राम की आरंभिक कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था का झुकाव अब मुख्यतः सेवा क्षेत्र (Service/Tertiary Sector) की ओर है। प्रो. रघुनंदनजी आचार्य द्वारा 2011 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित अध्ययन के अनुसार, "बकानी की कुल कार्यशील जनसंख्या में कृषक का प्रतिशत 12.13% तथा अन्य कार्यशील का 87.86% था| बकानी गाँव के कुल क्षेत्रफल में कृषि भूमि का क्षेत्रफल वर्ष 2013-14 में 60.23% था| इन आंकड़ों के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि बकानी कस्बे में अन्य कार्य एवं सेवाएँ भी प्रमुखता से की जाती हैं| बस्ती निरंतर नगरीय कार्यों की ओर अग्रसर है|" 

विगत 50 वर्षों में बकानी से कई लोग बाहर बड़े शहरों में गए हैं। किंतु उससे अधिक संख्या में, आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से नए परिवार बकानी में आ कर स्थापित भी हुए हैं। इस कारण बकानी की जनसंख्या जो 1960 में 3823 थी, 2011 में बढ़ कर 9812 हो गई है।             

यह एक सुखद तथ्य है कि मारवाड़ से चल कर कई स्थानों पर रुकते-रुकते जो भी परिवार बकानी आए, वे इस शस्य श्यामला भूमि के मुरीद बन सदियों तक यहीं के हो कर रह गए। अब लगभग सात पीढ़ियों के पश्चात, पुनः एक नया संक्रांति काल आरंभ हो रहा है, जिसके अंतर्गत  पिछले कुछ दशकों से बकानी के कई परिवार व्यापार-व्यवसाय-शिक्षा-रोजगार के अनुसरण में देश-विदेशों में जा कर अलग-अलग कार्यक्षेत्रों में बकानी का नाम रोशन कर रहे हैं और वे वहां “बकानीवाला” के नाम से जाने जाते हैं। संभव है कालांतर में, “बकानीवाला” या “बकानीवाल” भी एक नया उपनाम बन जाए, जैसा कि महाराष्ट्र में प्रचलन है कि वहां अधिकांश उपनाम व्यक्ति के गांव के नाम पर आधारित होते हैं।

इस लेख को विराम देने से पूर्व यह उल्लेख करना आवश्यक है कि अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र व इतिहास की दृष्टि से बकानी क्षेत्र में शोध की विपुल संभावनाएं हैं। प्रतिभाशाली युवा छात्रों को अपनी शैक्षणिक गतिविधियों के रूप में इस कार्य को हाथ में लेना चाहिए। 


“इतिहास की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन के नष्ट हो जाने पर कुछ नष्ट नहीं होता, परंतु इतिहास के नष्ट होने पर विनाश निश्चित है।“                                      
                                      - महर्षि वेदव्यास, महाभारत    


संदर्भ सूची:
1. Annals & Antiquities of Rajasthan or The Central & Western Rajput States, Tod James, 1920, Humphrey Milford, Oxford University Press  
2. कोटा राज्य का इतिहास (दो भाग), डा. मथुरालालजी शर्मा, 1940 एवं 1996 में डा. जगतनारायणजी द्वारा संपादित, राजस्थानी ग्रंथागार 
3. अखिल भारतीय मेड़तवाल वैश्य समाज का इतिहास, बंशीधर गुप्ता “श्याम”, 2008, 
4. Hindu kingship and polity in precolonial India, Norbert Peabody, 2003, Cambridge University Press, Cambridge Studies in Indian History & Society Series.
5. बकानी – भौगोलिक परिप्रेक्ष्य, 2015, श्री रघुनंदनजी आचार्य
6. श्री बालचंदजी व्यास बकानी से वार्ता दिनांक 28 12 2012
7. श्री हंसराजजी तातेड़ बकानी से वार्ता दिनांक 12 03 2015
8. श्री गौतमराजजी सिंघवी बकानी से वार्ता दिनांक 12 03 2015
9. श्री मधुसूदनजी आचार्य बकानी (वर्तमान में झालावाड़ निवासी) से समय-समय पर हुई वार्ताएं  
10. श्री दीनदयालजी शर्मा बकानी (वर्तमान में इंदौर निवासी) से समय-समय पर हुई वार्ताएं 
11. श्री राजकुमारजी जैन (टिल्लूजी), बकानी (वर्तमान में झालरापाटन निवासी) से दिनांक 10 06 2015 को हुई वार्ता
12. श्री महेन्द्रकुमारजी जैन (भंडारी), बकानी से समकालीन स्थितियों के बारे में समय-समय पर हुई वार्ताएं
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नोट: यह लेख पूर्व छात्र सेवा समिति - राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बकानी, जिला झालावाड़ (राजस्थान) के तत्वाधान में आयोजित शताब्दी समारोह 2015 की स्मारिका में प्रकाशित हुआ था|  
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