मन मेरा...घर मेरा
- एस एन घाटिया
(कविता लिखना मेरा स्वभाव नहीं है| 1967 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने पर, जैसा कि उस समय प्रायः सबके साथ होता था, स्थायी नौकरी की तलाश में कुछ वर्ष बेकारी और छुटपुट अस्थायी कार्यों में भी कटे| उसके बाद साहित्य और दर्शन के विद्यार्थी को स्थायी ठौर मिली तो वो भी एक बैंक में! सब कुछ अजीब सा लगता था| डेबिट-क्रेडिट से बंधी जिन्दगी, सुबह से शाम तक थकी जिन्दगी वाली कोल्हू-के-बैल जैसी स्थिति थी| ऐसे में एक दिन इस कविता की रचना हुई| यह भी खूब रही कि बैंक में डेबिट-क्रेडिट से बंधी वह जिन्दगी धीरे-धीरे ऐसी रास आई कि पता ही नहीं चला जीवन के बहुमूल्य 36 वर्ष कब और कैसे नित नई सार्थक अनुभूति के साथ निकल गए| )
मेले में खोये बालक सा
भटका करता है मन मेरा
चलते-चलते रो-रो कर
थक जब जाता है
भीड़ भरे कोलाहल से दूर
बैठ घने बरगद की छाँह तले
मन मेरा अकुलाता है|
बिछोह की उस बेला में
उमड़-उमड़ घन आते हैं
रोके नहीं रुकते हैं आंसू
परिचित और अपना सा लगता है
हर आता-जाता चेहरा
पास आने पर वह भी
कोई अजनबी निकलता है|
अबोध निरुपाय बालक-सा
हार-थक कर सो जाता हूं
आँख खुलने पर घिरा पाता हूं
अपने ही घर की
चिर-परिचित दीवारों से
जानी-पहचानी आवाजों से,
पदचापों से गंधों से|
ऐसे में
याद बरबस ही आ जाती है
स्कूल में पढ़ीं कविता की पंक्तियां -
देख लिया हमने जग सारा
अपना घर है सबसे प्यारा|
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👍👍
जवाब देंहटाएंबचपन की स्मृतियो का सुंदर चित्रण ।
जवाब देंहटाएंगद्य लेखक के सुपरिचित रूप के साथ ही कवि के रूप में भी आपका और आपकी बहुमुखी प्रतिभा का स्वागत और अभिनंदन।
आशा है आपके इस कविरूप के दर्शन अनवरत होते रहेंगे ।
।
उपर्युक्त टिप्पणी सुरेश मेहता द्वारा लिखी गयी है। कृपया इसे सहजभाव से स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंसुरेश मेहता
उपर्युक्त टिप्पणीकर्ता सुरेश मेहता
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