शनिवार, 23 मई 2020

बकानी में स्वतंत्रता संग्राम का अलख


बकानी में स्वतंत्रता संग्राम का अलख  

    - एस. एन. घाटिया 


(भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के संदर्भ में बकानी का योगदान इतिहास का एक निरंतर विस्मृत होता जा रहा स्वर्णिम पृष्ठ है जिसे इस आलेख के विद्वान लेखक श्री सत्यनारायण घाटिया प्रकाश में लाए हैं| श्री घाटिया बकानी के एक ऐसे गौरवशाली व्यक्तित्व हैं जो बैंकिंग एवं वित्त प्रबंधन में विशेष योग्यता रखते हुए बैंक ऑफ बड़ौदा के ए.जी.एम. पद से सेवानिवृत्त हुए हैं और पू.छा.से.स. के उपाध्यक्ष पद पर सुशोभित हैं| आपने चार वर्ष तक लंदन में कार्यरत रह कर भारत का गौरव संवर्धन किया है तथा "चार्टिंग द फ्यूचर" नाम से बैंकिंग के इतिहास विषयक पुस्तक का लेखन भी किया है| संप्रति कोटा निवासी श्री घाटिया प्रबुद्ध चेता होने के अतिरिक्त कोटा में रिटायर्ड बैंक ऑफिसर्स फोरम के अध्यक्ष, कोटा डवलपमेंट फोरम के पूर्व अध्यक्ष तथा कोटा सिटीजन कौंसिल के सदस्य भी हैं| बकानी के इतिहास के एक महत्वपूर्ण आयाम को अपने कुशल लेखन से संयोजित करने के लिए आभार|                                                                                                                                                 संपादक त्रय)  

जीवन के आरंभिक वर्षों में मेरे जैसे कई पूर्व छात्रों के केरियर की सुदृढ़ नींव बकानी की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक चेतना के कारण ही निर्मित हो सकी है। प्रभात फेरियों में बड़े स्कूल के स्काउट अध्यापक श्रद्धेय श्री बालचंदजी शर्मा के देशभक्ति गीत हमारे बाल-मन में एक नवीन ऊर्जा का संचार कर हमें अपने देश और समाज के लिए कुछ करने की प्रेरणा देते थे। लेज़िम व डम्बल की लय- ताल के साथ देशभक्ति के तराने हमारे मन-मस्तिष्क में रच-बस गए थे:  

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।
सदा शक्ति सरसाने वाला
प्रेम-सुधा बरसाने वाला
वीरों को हरसाने वाला
मातृभूमि का तन-मन सारा, झण्डा ऊँचा रहे हमारा।

ब्रिटिश शासन से मुक्ति के लिए भारतवर्ष में मुख्य रूप से दो स्वतंत्रता संग्राम हुए हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में आरंभ हुआ था जिसमें ब्रिटिश सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया था। यह स्वतंत्रता संग्राम लगभग दो वर्षों तक देश के विभिन्न भागों में चला एवं कई स्थानों पर अंग्रेज अधिकारियों के साथ असैनिक अंग्रेज स्त्रियां व बच्चे भी मारे गए। इस संग्राम में सैकड़ों भारतीय सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब, तात्या टोपे, मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर और मंगल पांडे इत्यादि इस सशस्त्र क्रांति के लोकप्रिय नायक थे। तत्कालीन राजपूताने में भी "कमल और रोटी" का संदेश पहुंच चुका था। योजना के अनुसार 28 मई, 1857 को नसीराबाद की सैनिक छावनी में क्रांति का शंखनाद हुआ। 3 जून, 1857 को नीमच की छावनी में भारतीय सैनिकों ने शस्त्र उठा लिए। इसी के साथ ब्यावर, देवली, एरिनपुरा (जोधपुर) तथा खैरवाड़ा की छावनियों में भी क्रांति की ज्वाला धधक उठी। शाहपुरा (भीलवाड़ा) नरेश भी क्रांतिकारियों के साथ हो गये, जबकि कोटा और झालावाड़ नरेश अंग्रेजों के पक्ष में थे।   
कोटा शहर में 1857 का यह संग्राम लाला जयदयाल कायस्थ व मेहराबखां पठान के नेतृत्व में लड़ा गया था। कोटा में नियुक्त एजेंसी के सर्जन डॉक्टर सेडलर और सिटी डिसपेंसरी के इंचार्ज मिस्टर सेवील को मार डाला गया। सन 1857 की धनतेरस (कार्तिक कृष्ण 13) के दिन कोटा के पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन और उसके दो पुत्र तलवार के वार से मारे गए। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया और भारतीय सैनिकों ने शहर पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव रामसिंहजी कुछ स्वामिभक्त राजपूत सरदारों के साथ गढ़ में बंद थे और उनका शासन गढ़ तक ही सीमित रह गया था। बाद में रजवाड़ों और अंग्रेज सेना की सहायता से जयदयाल कायस्थ व मेहराबखां पठान अपने कई सैनिक साथियों के साथ मारे गए और छह महीने पश्चात 31 मार्च, 1858 को कोटा शहर पुनः महाराव रामसिंहजी के अधिकार में आ गया। जून 1858 में तात्या ने टोंक पर अधिकार कर लिया। टोंक से बूंदी, भीलवाड़ा तथा कांकरोली में अंग्रेजों को मात देते हुए वे झालरापाटन पहुंचे। झालावाड़ का राजा भी  अंग्रेजों का सहयोगी था, किन्तु राज्य की सेना ने तात्या का साथ दिया और देखते-देखते स्वातंत्र्य सैनिकों ने झालावाड़ पर अधिकार कर लिया। इसके बाद तात्या टोपे भारतीय स्वातंत्र्य सैनिकों के साथ इन्दौर की ओर निकल गये।

बकानी में भी कोटा रियासत का किला था पर यहां इस प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रभाव का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, क्योंकि राजपूताना में मुख्यतः जहां-जहां अंग्रेज सेनाएं नियुक्त थीं युद्ध वहीं हुआ था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंततः विफल रहा क्योंकि यह केवल सैनिकों का असंगठित युद्ध था जिसमें आम जनता का जुड़ाव नहीं हो सका था। ब्रिटिश साम्राज्ञी विक्टोरिया द्वारा दिनांक 1 नवंबर 1858 को की गई उद्घोषणा के अनुसार अब संपूर्ण भारत पर ब्रिटिश सरकार का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया।  

देश में अंग्रेजों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो जाने के बाद, भारत के लोगों को नीतियां बनाने व शासन करने का कोई अधिकार नहीं रह गया था। ब्रिटिश शासकों और स्थानीय सामंतों की मनमानी से जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा बढ़ती गई जिसने द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया। इसका आरंभ 1876 में कलकत्ता में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी द्वारा भारत एसोसिएशन के गठन एवं तत्पश्चात 1885 में ए.ओ. ह्यूम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से माना जाता है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से नवशिक्षित मध्यम वर्ग का रुझान राजनीति की ओर होने लगा और इससे भारतीय राजनीति का स्वरूप ही बदल गया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के पश्चात और विशेष रूप से 1915 में महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद देश के सुदूर कस्बों व गांवों का प्रबुद्ध वर्ग भी स्वदेशी आंदोलन से जुड़ने लगा।

बकानी में भी कई प्रबुद्ध व्यक्ति विद्यार्थी जीवन से ही स्वदेशी आंदोलन से जुड़ गए थे। मेरे पूज्य पिताजी श्री रामनारायणजी घाटिया के पुराने कागजों में भारत की आज़ादी, समाज सेवा व ग्रामोद्धार के बारे में मुझे उनके निम्नलिखित संस्मरण मिले हैं, जिन्हें पढ़ने से बकानी में तत्कालीन स्थिति (1926-1947) का पता चलता है:

श्री रामनारायणजी घाटिया की डायरी

बड़ा स्कूल व बकानी में पहला अखबार: वे लिखते हैं कि “बचपन से जहां तक मुझे स्मृति आती है सन 1926 या 27 में जब मैं कक्षा दो में था ग्राम बकानी का बड़ा स्कूल बन गया था और दो क्लासों में ही मैं पुराने स्कूल में पढ़ा था। कक्षा तीन में तो मुझे बकानी के बड़े स्कूल में पढ़ने का सौभाग्य मिला जहां से मैने 1934 में कक्षा आठ की परीक्षा इलाहाबाद बोर्ड से द्वितीय श्रेणी में गणित में डिस्टिंक्शन के साथ उत्तीर्ण की।“
एक संग्रहणीय दस्तावेज के रूप में 80 वर्ष पुराना यह बोर्ड सर्टिफिकेट नीचे दिया हुआ है:





आगे वे बताते हैं कि “हमारे गांव में सबसे पहिला अखबार कक्षा दो में श्री प्यारेलालजी मास्टर साहब ने कलकत्ता से निकलने वाला साप्ताहिक पत्र “स्वतंत्र” जिसका वार्षिक चंदा केवल मात्र रु. 2/- था मेरे लिए मंगवाया। इसके साथ ही मैने अपने साथी श्री संपतराजजी जैन के शामिल में समाज सुधारक कार्यालय लखनऊ से छोटे-छोटे भजनों की समाज सुधार संबंधी किताबों का पार्सल मंगा कर इन छोटी-छोटी दो-दो पैसे वाली पुस्तकों को बेचना शुरू किया।“

बकानी के पहले स्वतंत्रता सैनानी श्री निरंतर हरिजी: “मेरे गांव बकानी के पुराने नेता श्री निरंतर हरिजी विदेशी वस्त्र आंदोलन में अजमेर गिरफ्तारी दे चुके थे और 15 दिन की जैल काट चुके थे। वे जब जैल से छूट कर आए तो बकानी में उनका स्वागत किया गया था। उनका नारा था “क्यों भाई क्यों”? हम लोग कहते “क्या भाई क्या?” फिर वे कहते “एक काम करोगे?” हम लोग कहते “क्या भाई क्या?” निरंतर हरिजी कहते “जैल चलोगे?’ हम उत्साह से कहते “हां भाई हां”। इससे हमारे बाल मन में भी देश को आज़ाद कराने के लिए जैल जाने की भावना जागृत हुई। देश की छोटी-मोटी खबरें भी हमें साप्ताहिक “स्वतंत्र” से मिलती रहती थी। श्री निरंतर हरिजी को आज़ादी के बाद स्वतंत्रता सैनानी का पद तथा 15/- रुपया माहवार पेंशन मिलती रही।“

हाड़ौती में प्रजामंडल की स्थापना: तत्कालीन राजपूताने में स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ किसान आन्दोलनों से हुआ क्योंकि रजवाड़ों में राजाओं और जागीरदारों के विरुद्ध असंतोष बढ़ता जा रहा था। अलग-अलग रियासतों में चल रहे किसान आंदोलन प्रजामंडल से जुड़ गए। प्रजामंडल आंदोलन राजनीतिक जागरण एवं देश में गाँधी जी के नेतृत्व में चल रहे स्वतंत्रता संघर्ष का परिणाम था। यद्यपि आरंभ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस देशी रियासतों के प्रति उदासीन रही। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में सन 1938 में आयोजित हरिपुरा (सूरत जिला, गुजरात) अधिवेशन में रियासतों के प्रति कांग्रेस की नीति में परिवर्तन आया। रियासती जनता को भी अपने-अपने राज्य में संगठन निर्माण करने तथा अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने की छूट दे दी गई। उसी वर्ष (1938) मेवाड़ में संगठित राजनीतिक आन्दोलन की शुरुआत हो गयी। इस नई जन-जागृति के जनक थे माणिक्यलाल वर्मा जिन्होने 25 अप्रैल, 1938 को उदयपुर में कार्यकर्त्ताओं की बैठक कर प्रजामंडल का विधान स्वीकृत कराया। प्रजामंडल की स्थापना होते ही तत्केकालीन शासन द्वारा इसे गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और आन्दोलन-प्रचारकों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाहियाँ की जाने लगी। सन 1938 में ही कोटा राज्य प्रजामण्डल की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन नयनूराम शर्मा की अध्यक्षता में माँगरौल में हुआ। 1941 में नयनूराम शर्मा की हत्या हो जाने के बाद प्रजामण्डल का नेतृत्व अभिन्न हरि ने किया। “भारत छोड़ो आंदोलन” में 13 अगस्त, 1942 ई. को सरकार ने शम्भूदयाल जी, हीरालाल जी जैन एवं वेणी माधव जी आदि कोटा के स्वतन्त्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर रामपुरा कोतवाली में बन्द कर दिया। यह गिरफ्तारी अंग्रेज सरकार के इशारे पर कोटा स्टेट ने की थी। इसकी खबर आग की तरह कोटा में फैल गयी। इससे जन-आंदोलन और भड़का तथा जनता ने शहर कोतवाली पर राष्ट्रीय झंडा फहरा दिया। कोटा के नागरिक व छात्र रामपुरा कोतवाली को घेर वहां धरने पर बैठ गए। बकानी में जन्मे अब्दुल हमीदजी इस धरने में अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए थे।स्वतन्त्रता सेनानियों ने पुलिस को बैरकों में बंद कर दिया व नगर पर जनता का अधिकार हो गया। कोटा महाराव द्वारा दमन न करने के आश्वासन पर जनता ने महाराव को शासन सौंपा और प्रजा मण्डल के कार्यकर्त्ता रिहा कर दिए गए।

बकानी में प्रजामंडल की स्थापना: “उन्हीं दिनों थानेदारी से इस्तीफा दे श्री अभिन्न हरिजी कोटा राज्य प्रजा मंडल के अध्यक्ष बने। वे रामगंजमंडी के पास के एक गांव के रहने वाले थे, लंबा लट्ठ रखते थे और और नंगे सिर रहते थे जो घोट-मोट था। वे हमारे गांव में प्रजामंडल बनाने आए थे। उन्होनें मेरे पिताजी श्री भैरूलालजी घाटिया को बकानी प्रजामंडल का प्रथम अध्यक्ष और मेरे साथी श्री संपतराजजी को प्रथम मंत्री बनाया। मैने भी मंत्री बनने की हठ की थी और मेरा भी नाम सहायक मंत्री में लिखा गया था। मैं एक बार अपने बच्चे का इलाज कराने इन्दोर गया था। उस रोज श्री राजगोपालचारी का भाषण राजबाड़ा के सामने हुआ था उसमें राजाजी ने बहुत जोर-शोर से रजवाडों व अंग्रेजों के दोहरे शासन को खत्म कर देश में इन पुराने टूटे-फूटे सामंती बर्तनों के बजाय कांग्रेस के नए प्रजातांत्रिक बर्तन लाने के लिए हमको कहा था, यह बात मुझे आज भी याद है।"

बकानी के सात लोगों की थानेदार द्वारा गिरफ्तारी: “श्री लल्लूलालजी कायस्थ सन 1942 से 1947 के बीच में बकानी में थानेदार रहे थे। मेरे मोड़ी मंडल कांग्रेस का अध्यक्ष होने की वजह से कुछ न कुछ शिकवा-शिकायत होते ही रहते थे और सन 1946-47 में आज़ादी मिलने से पहले मेरा व मेरे पिताजी श्री भैरूलालजी घाटिया सहित बकानी के छह अन्य लोगों का रविवार के रोज छुट्टी के दिन चालान बना कर एस.डी.ओ. साहिब श्री शंभूकरणजी चारण इकलेरा की अदालत में पेश करने हेतु थाना इकलेरा में बंद रखा। उधर बकानी से दूसरी बस जो झालावाड़ जा रही थी उस पूरी बस में गांव के करीब सभी प्रतिष्ठित और हम सात आरोपियों के परिवार के व्यक्ति एस.पी. साहिब झालावाड़ के पास पहुंचे। वहां उस दिन श्रीमान डी.आई.जी साहिब भी पधारे हुए थे, उन्हें ले कर इकलेरा कोर्ट में पहुंचे और एस.डी.ओ. साहिब श्री शंभूकरणजी चारण को घर से बुलवा कर रविवार को ही नियमानुसार हमारे जमानत मुचलके करवा रिहाई की गई। बकानी की स्वागतातुर जनता हमें जुलूस में बाज़ार बकानी में ले गई और श्री रामगोपालजी गांधी सरपंच के सभापतित्व में सभा कर के पुलिस के विषय में आलोचनाएं की । डेढ़ साल तक हमारा मुकदमा चलता रहा और हम सातों आरोपियों के खिलाफ मुकदमा खारिज किया गया तथा श्री लल्लूलालजी थानेदार को नौकरी से बर्खास्त किया गया। सन 1947 में 15 अगस्त का जुलूस निकालने के लिए भी हमको इकलेरा से ऑर्डर लाना पड़ा तब 15 अगस्त का जुलूस बकानी में निकाला जा सका। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान के लिए 26 जनवरी 1986 को हाड़ौती स्वतंत्रता संग्राम सैनानी समिति द्वारा प्रमाण पत्र एवं राजस्थान प्रदेश कांग्रेस द्वारा मुझे स्वतंत्रता सैनानी का प्रशस्ति पत्र मिला।“


जयपुर कांग्रेस अधिवेशन: “श्री वेदपालजी त्यागी जो स्वतंत्रता से पहले कोटा राज्य के मंत्रियों में लिए गए थे और आगे जा कर कोटा राज्य व राजस्थान के राज्यपाल तक पहुंचे थे। श्री वेदपालजी त्यागी हमारे वकील भी थे इस वजह से कोटा के होने से मेरा उनसे नजदीकी संबंध था। वे जयपुर में आयोजित कांग्रेस के 55वें अधिवेशन में हमारे गांव से भी 15-16 वालंटीयर ले गए थे। मैं मोड़ी मंडल कांग्रेस अध्यक्ष व श्री संपतराजजी बकानी मंडल कांग्रेस के अध्यक्ष होने से हम भी इस अधिवेशन में जयपुर गए थे। पंडित जवाहरलाल जी नेहरू की अध्यक्षता में यह अधिवेशन सन 1948 में हुआ था। तब अधिकांश प्रतिनिधि टेंटों में रुके थे और दरियों पर बैठ कर पार्टी के कार्य की रूपरेखा तैयार की थी।“ 
बकानी में शहीद स्मारक: स्वतंत्रता के पश्चात श्री संपतराजजी जैन की अध्यक्षता के दौरान प्रजामंडल बकानी द्वारा स्वाधीनता संग्राम के शहीदों और सैनिकों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रथम स्वाधीनता दिवस पर हाट चौक में भारतीय स्वतंत्रता स्मारक की स्थापना की गई थी:


श्री संपतराजजी जैन मात्र 18 वर्ष की आयु में सन 1936 से ही राजनीति से जुड़ गए थे। पारिवारिक व्यवसाय में आपका मन कभी नहीं लगा और देश व समाज सेवा में आप तन-मन-धन से आजीवन जुटे रहे। इसी प्रकार श्री चांदमलजी बोथरा ने भी समाज सुधार व देशसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय सेवाएं दी। राजनीतिक जागृति के लिए वे शिक्षा के प्रसार को अत्यंत आवश्यक मानते थे। आप भी प्रजामंडल बकानी के अध्यक्ष रहे और कोटा राज्य प्रजामंडल के भी सदस्य रहे। 
श्री सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीदजी कौसर: बकानी में स्वतंत्रता संग्राम के अलख की यह चर्चा श्री अब्दुल हमीदजी के उल्लेख के बिना अधूरी रहेगी। श्री अब्दुल हमीदजी का जन्म 5 मई 1929 को बकानी में हुआ था। उनके पिताजी का नाम सैयद मीर मोहम्मद अली था। जब वे तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो जाने से उनके परिवार के सदस्य उन्हें बकानी से बूँदी ले गए। “भारत छोड़ो आंदोलन” के सिलसिले में जब कोटा कोतवाली को स्वतंत्रता सेनानियों की गिरफ्तारी के विरोधस्वरूप घेर लिया गया था तो उस धरने में अब्दुलहमीदजी कौसर और रामचंद्रजी सक्सेना अग्रिम पंक्ति में बैठे थे। उसी समय घुड़सवार सैनिकों ने आन्दोलनकारियों को रौंदने का प्रयास किया। पुलिस के साथ इस संघर्ष में छात्र नेता अब्दुलहमीदजी एवं रामचंद्रजी सक्सेना सहित और भी कई लोग घायल हुए। दिनांक 20 अगस्त, 1942 ई. को स्वतंत्रता सेनानियों को बिना शर्त रिहा करने पर कोतवाली से घेरा हटाया गया।
श्री कौसर इसके बाद अपनी शिक्षा पूर्ण कर बूंदी में वकालत करते रहे। श्री अब्दुल हमीदजी  'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध थे क्योंकि सन 1954 ई. में उनके एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी।
खादी-व्रत: हमने अपने बचपन में देखा कि बकानी के कई व्यक्तियों ने स्वदेशी आन्दोलन से प्रभावित हो आजीवन खादी पहनने का व्रत ले रखा था। महात्मा गांधी के अनुसार हाथ से कते-बुने खादी के वस्त्र पहनना भी देशसेवा थी। बकानी में नियमित रूप से खादी पहनने वाले व्यक्तियों में श्री निरंतर हरिजी, बाबू चांदमलजी बोथरा, बासाहब संपतराजजी जैन, श्री रामगोपालजी गांधी, श्री कन्हैयालालजी जोशी, श्री रामनारायणजी घाटिया, श्री पन्नालालजी भंडारी, श्री नंदलालजी घाटिया, श्री हंसराजजी तातेड़ इत्यादि प्रमुख रहे हैं। श्री रामनारायणजी घाटिया ने बकानी मे खादी के प्रचार-प्रसार के लिए कई वर्षों तक खादी-भंडार का संचालन किया और बाद में कई वर्षों तक खादी-भंडार रामपुरा बाज़ार कोटा के प्रबंधक रहे और फिर सन 1967 तक क्षेत्रीय खादी भंडार कोटा के भी मैनेजर रहे।
मेरे पिताजी श्री रामनारायणजी घाटिया बातचीत में बताते रहते थे कि महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा के दर्शन के लिए सन 1948 में वे दिल्ली गए थे। दिल्ली की सड़कों पर असंख्य लोगों की भीड़ के कारण वे सड़क के किनारे एक पेड़ पर चढ़ गए और वहां से उन्होनें गांधीजी के अंतिम दर्शन किए।
आज जब मैं उस समय की स्थितियों के बारे में विचार करता हूं तो पाता हूं कि जब झालावाड़ जिले के अन्य कस्बों के लोग निरंकुश सामंती शासन के विरुद्ध आवाज उठाने में डरते थे, बकानी के इन देशसेवकों ने जिला स्तर पर कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। श्री संपतराजजी व श्री चांदमलजी ने कई वर्षॉं तक झालावाड़ जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारियों को संभाला। इन सभी लोगों नें सामाजिक व शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से स्वाधीनता आंदोलन की प्रवृत्तियों को गति प्रदान की। इनके प्रयासों के परिणामस्वरूप बकानी मे राजनीतिक चेतना का स्तर जिले के अन्य कस्बों की तुलना में काफी उच्च रहा। बकानी के इन देशभक्तों की सेवा एवं त्याग के बारे में ये पंक्तियाँ सटीक हैं-
      तज स्वार्थ का मार्ग, अहिंसा को अपनाये,
             
शीश झुका चुपचाप पुलिस की लाठी खाये,
             
गये जेल, हथकड़ी हाथ में, कष्ट उठाये,
             
बहुत बहुत आशीष भारत माता से पाये।
अध्ययन व नौकरी के सिलसिले में कई दशकों तक देश- विदेश के विभिन्न भागों में रह कर सेवा-निवृत्ति के पश्चात अब पूर्व छात्र सेवा समिति के माध्यम से अपनी मातृभूमि बकानी से पुनः जुड़ने पर मैं पाता हूं कि स्वतंत्रता-पूर्व के राजनीतिक माहौल और वर्तमान राजनीतिक सोच में काफी अंतर आ चुका है। समय व परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण यह अंतर आना स्वाभाविक भी है। आज भी बकानी में राजनीतिक सक्रियता और जागरूकता पहले से अधिक देखने को मिलती है। आवश्यकता है अंतर्द्वंदो से ऊपर उठ कर इस राजनीतिक सक्रियता का उपयोग  बकानी क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए किया जाए। आशा है राजनीतिज्ञों की वर्तमान एवं आगामी पीढ़ीयां पारस्परिक समन्वय बना कर जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी की उदात्त भावना से बकानी क्षेत्र के चतुर्मुखी विकास को नई गति व आयाम प्रदान करेगी

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नोट: यह लेख पूर्व छात्र सेवा समिति - राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बकानी, जिला झालावाड़ (राजस्थान) के तत्वाधान में आयोजित शताब्दी समारोह 2015 की स्मारिका में प्रकाशित हुआ था|
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