काला धन: कितना काला?
- एस. एन. घाटिया
27 सितम्बर 2012
हाल ही में भारत की जनता मूक दर्शक की तरह देखती रही कि कोयले की कलुष कालिमा
और विषाक्त धुएं ने किस तरह भारतीय संसद के मानसून सत्र (2012) को पंगु बना कर रख दिया था. संसद के भीतर-बाहर राजनीतिक
पार्टियों के आरोपों-प्रत्यारोपों नें सामान्य नागरिक के मन में संपूर्ण व्यवस्था
के प्रति अविश्वास सुदृढ़ कर दिया है. उसे अब इस देश में अपने भविष्य की चिंता
सताने लगी है. टीवी या अखबार खोलते समय यह दुश्चिंता रहती है कि आज कौन सा नया घोटाला
उजागर होगा! अब टीवी चैनलों को पारिवारिक राग-द्वेष के घिसे-पिटे सीरियल दिखाने की
जरूरत नहीं है. उन्हें बस इतना करना है कि अलग-अलग दलों के नेताओं को विभिन्न
क्षेत्रों में व्याप्त घोटालों पर चर्चा करने के लिए एक मंच प्रदान कर दें और फिर
देखिए कैसे वे एक-दूसरे के कार्यकाल में किए हुए घोटालों की परतें खोलते हैं.
भ्रष्टाचार और काले धन में पारस्परिक कार्य-कारण संबंध है. एक ओर, काले धन की उत्पत्ति
का कारण देश में व्याप्त भ्रष्टाचार है तो दूसरी ओर काले धन के कारण भ्रष्टाचार बढ़
रहा है, क्योंकि जिसके पास काला धन है वह उसके बल पर अपने जायज-नाजायज सभी कार्य
कराने में समर्थ हैं. भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में स्वीकार कर लिया गया है.
भ्रष्टाचार और काले धन के इस दुष्चक्र से सामान्य नागरिक संत्रस्त है. हर कोई
चाहता है कि भ्रष्टाचार व घोटालों में लिप्त लोगों को कड़ी-से-कड़ी सजा दी जाए, चाहे
वे कितने ही प्रभावशाली या किसी भी राजनीतिक दल से क्यों न हो. विभिन्न मंचों से
यह मांग भी उठ रही है कि विदेशों में जमा काले धन को वापस लाया जाए, जिससे देश के
आर्थिक विकास को गति मिल सके. भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध कई सरकारी/गैर-सरकारी
संस्थाएं कार्यरत हैं और कई विशाल जन-आंदोलन भी आयोजित किए जा चुके हैं.
सिद्धांततः और घोषित रूप से, सरकार के तीनों अंग – विधायिका, कार्यपालिका और
न्यायपालिका - भी भ्रष्टाचार और काले धन के विरुद्ध है और इनके उन्मूलन व रोकथाम
के लिए कई कानून व नियम भी बने हुए हैं.
भ्रष्टाचार पर अंकुश हेतु लोकपाल की नियुक्ति के मुद्दे पर अगस्त 2011 में साफ-सुथरी
छवि वाले समाजसेवी अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चलाए गए आन्दोलन से देश में एक नवीन
आशा का संचार हुआ था. इस आन्दोलन को आशातीत जन-समर्थन मिला और सरकार चारों तरफ से
घिर गई थी. India Against Corruption व Civil Society जैसी स्वच्छ छवि वाली गैर-राजनीतिक संस्थाओं के तत्वाधान
में भ्रष्टाचार और काले धन के सर्वव्यापी दैत्यों से मुक्ति मिलने की आशा बंधी थी.
किंतु एक वर्ष में ही टीम अन्ना में मतभेद गहराते चले गए, आन्दोलन की सफलता के लिए
राजनीतिक दल बनाने की बात होने लगी और जनहित पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं हावी
होने लगी. सितंबर 2012 में अन्ना हज़ारे नें सार्वजनिक घोषणा कर दी कि टीम के
सदस्यों द्वारा एक नई राजनीतिक पार्टी बना कर चुनाव लड़ने के प्रस्तावों से वे
असहमत हैं. यह भी बताया गया कि अरविन्द केजरीवाल के एनजीओ इंडिया अगैंस्ट करप्शन
को 1 अप्रैल 2011 से 30 सितंबर की अवधि में कुल रु.2.94 करोड़ का चंदा मिला था,
जिसमे से रु.1.57 करोड़ आंदोलन पर खर्च हुए थे. संबंध विच्छेद हो जाने पर, अरविन्द
केजरीवाल नें चंदे की शेष राशि लगभग रु.2.00 करोड़ का चेक अन्ना हज़ारे को देने की
पेशकश की, किंतु अन्ना हज़ारे नें लेने से मना कर दिया.
हर स्तर पर हर संभव प्रयासों के बावजूद देश में काला धन दिन-दूना और
रात-चौगुना होता जा रहा है. ऐसी स्थिति में कई प्रश्न उठ रहे हैं. क्या यह माना
जाए कि भ्रष्टाचार और काले धन के उन्मूलन व रोकथाम के लिए सरकार और जनता के स्तर पर किए जा रहे प्रयासों
में संकल्प की शुद्धता और दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव है? क्या समस्या की भयानकता को
समझते हुए इसके विभिन्न आयामों का सही विश्लेषण नहीं किया गया है? क्या रक्षक ही
भक्षक बने हुए हैं? क्या अपराधी स्वयं ही अनुसंधानकर्ता की भूमिका निभा रहे हैं,
जिससे समस्या बढ़ती जा रही है?
समस्या को समझने के लिए काले धन की व्याख्या करना आवश्यक है. इसकी परिभाषा में
मुख्य रूप से दो प्रकार की आय सम्मलित की जाती है:
1.
आपराधिक व
अवैधानिक गतिविधियों से अर्जित आय/धन.
2.
वैधानिक
गतिविधियों से अर्जित ऐसी अघोषित आय/धन जिस पर लागू टैक्सों का भुगतान नहीं किया
जाता है.
अघोषित धनार्जन के नए-नए तरीके विकसित होते जा रहे हैं, क्योंकि भ्रष्टाचार और
काले धन की रोकथाम के लिए बनाया गया हर कानून/नियम काली कमाई का एक नया स्रोत बन
जाता है. काली कमाई के वर्तमान प्रचलित मुख्य तरीकों की सूची निम्नलिखित है:
आपराधिक व अवैधानिक गतिविधियां:
1.
विभिन्न प्रकार
की वित्तीय धोखाधड़ी
2.
नकली व
प्रतिबंधित वस्तुओं का लेन-देन
3.
नशीले पदार्थों
का निर्माण, व्यापार व तस्करी
4.
खनिज पदार्थों का
अवैध खनन
5.
वनों की अवैध कटाई
6.
मादक द्रव्यों का
अवैध व्यापार
7.
चोरी, डकैती व
अपहरण
8.
वैश्यावृत्ति व
यौन शोषण के लिए मानव तस्करी
9.
हथियारों की
तस्करी
10.
सरकारी व
गैर-सरकारी संस्थाओं के धन का गबन एवं वस्तुओं की
चोरी
11.
राजकीय सेवाओं के
माध्यम से अनुचित लाभ (जैसे कि विभिन्न सरकारी योजनाओं के अंतर्गत लाइसेंस-परमिट-लीज-ऋण-अनुदान
प्रदान करना, नियम विरुद्ध भू-उपयोग परिवर्तन, अवैध निर्माण का नियमन, नियमों की
अवहेलना/कार्य की प्रक्रिया को तेज करना इत्यादि) प्रदान करने की एवज में रिश्वत
लेना व सार्वजनिक पद का दुरुपयोग करना.
वैधानिक गतिविधियों से अर्जित अघोषित आय/धन:
इस श्रेणी के अंतर्गत वे आर्थिक गतिविधियां आती हैं जो वैधानिक रूप से तो
स्वीकृत होती हैं, जैसे कि फर्मों व कंपनियों द्वारा किए जाने वाले विभिन्न प्रकार
के व्यापारिक व व्यावसायिक कार्य-कलाप. किंतु उनसे अर्जित आय व धन को पूर्ण या
आंशिक रूप से छिपा कर उन पर देय विभिन्न टैक्सों जैसे कि आय कर, बिक्री कर/वैट,
एक्साइज ड्यूटी, स्टाम्प ड्यूटी व अन्य वैधानिक दायित्वों का भुगतान नहीं करना. इस
प्रकार की टैक्स चोरी के प्रचलित तरीके निम्नलिखित हैं:
1.
व्यापार-व्यवसाय
के कोई बही-खाते नहीं रखना.
2.
विभिन्न सरकारी
विभागों को प्रस्तुत करने के लिए एक ही व्यापार-व्यवसाय के अलग-अलग बही-खाते रखना.
3.
बिना बिल/रसीद के
वस्तुओं और सेवाओं की खरीद व बिक्री.
4.
बेनामी
संपत्तियों में निवेश करना.
5.
बिक्री/प्राप्तियों
तथा खरीद की राशियों को बही-खातों में कम दर्ज करना.
6.
खर्चों को
बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना.
7.
बिक्री को सहयोगी
संस्थानों के बही-खातों में दर्शाना.
8.
उत्पादन कम
बताना.
9.
गलत कीमत दिखाना.
10. बिक्री/प्राप्तियों को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना.
11. विदेशी संस्थानों को बोगस खर्चों का भुगतान दिखाना.
12. बोगस गिफ़्ट्स देना दिखाना.
13. कंपनियों द्वारा भारी प्रीमियम पर शेयर जारी करना दिखाना.
14. अचल संपत्तियों की कम कीमत दर्शाना, इत्यादि.
15. आयकर-मुक्त कृषि आय को बढ़ा-चढ़ा कर बताना.
16. एनजीओ के माध्यम से बोगस कार्य दिखा अनुदान/चंदा लेना.
आर्थिक विश्लेषक देश में काले धन की मात्रा के बारे में एकमत नहीं हैं.
अलग-अलग आकलनों के अनुसार काला धन देश के सकल घरेलू उत्पादन (GDP) का 20 से 45
प्रतिशत तक बताया जाता है. किंतु ये सभी आकलन तथ्यों पर आधारित नहीं हैं, क्योंकि
काला धन ऐसी “बेहिसाबी आय” है जिसके बारे मे कहीं भी, किसी के पास कोई तथ्यात्मक
जानकारी नहीं होती है. मई 2012 में भारत सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणव
मुखर्जी (जो कि अभी भारत के वर्तमान राष्ट्रपति हैं) द्वारा प्रस्तुत श्वेत पत्र
में यह स्वीकार किया गया है कि “काले धन के सृजन अथवा संचयन के लिए कोई विश्वस्त अनुमान नहीं है, और न ही ऐसे
अनुमान के लिए कोई सर्वसहमत पद्धति है.”
तथ्यात्मक जानकारी के अभाव में काला धन एक ऐसा विषय बन गया है जिसे विभिन्न पार्टियां
और समूह अपने राजनीतिक दांव-पेंच के रूप में उछालते रहे हैं. हाल ही में बाबा
रामदेव नें विदेशों में जमा काले धन को देश में लाने के लिए फिर आन्दोलन छेड़ा है. मीडिया
व आन्दोलनकर्ता काले धन के मुद्दे को सनसनीखेज बनाने के लिए आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ा कर
बताने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं. ऐसा ही अतिशयोक्तिपूर्ण दावा गत वर्ष बाबा
रामदेव नें किया था जब उन्होनें कहा कि काले धन की राशि भारतीय अर्थव्यवस्था के
आकार से सात गुना अधिक है और इस राशि की वसूली होने पर भारतीय रुपए की कीमत 50
अमेरिकी डॉलर के बराबर हो जाएगी.
टीम अन्ना में गंभीर मतभेदों के सार्वजनिक होने के पश्चात, सामान्य नागरिक अब
इस प्रकार के आन्दोलनों में सक्रिय होने से कतरा रहा है. जनहित के नाम पर
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए चलाए जाने वाले ऐसे अभियानों की
विश्वसनीयता भी राजनीतिक पार्टियों की तरह संदेह के घेरे में आ गई है. टीम अन्ना के
बिखराव से, अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि लोगों के इस आन्दोलन से जुड़ने के मूल
में निस्वार्थ सेवा/त्याग की भावना कम व व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अधिक प्रबल रही
थी.
भ्रष्टाचार की परिभाषा का दायरा व्यक्ति की नैतिक मान्यताओं पर आधारित होता
है. हमारे देश में ऐसे भी लोकसेवक का आदर्श उदाहरण है जो सरकारी कार्य करते समय
सरकारी लैंप जलाते थे और व्यक्तिगत कार्य करते समय अपना स्वयं के लैंप का उपयोग
करते थे. इसके ठीक विपरीत, वर्तमान युग में अधिकारियों के आवासीय विद्युत व्यय का
भुगतान सरकारी कार्यालय के मीटर से करने में कोई हिचक अनुभव नहीं की जाती है. टीम
अन्ना की एक प्रमुख सदस्य किरन बेदी अपने यात्रा व्यय का पुनर्भुगतान बढ़ा-चढ़ा कर
लेना इसलिए उचित समझती हैं कि वे ऐसा अपने एनजीओ के माध्यम से समाज के बृहत्तर हित
में कर रही थी. उनके मतानुसार ऐसा करने में कुछ भी अनैतिक नहीं था. किंतु यह प्रकरण
सार्वजनिक होने पर इस तथाकथित “उचित” राशि को लौटा भी देती हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि सरकारी
कार्यों में अरबों-करोड़ों रुपयों के घोटाले जब सहज और नियमित रूप से होने लगे हैं
तो यात्रा-व्यय जैसी इस प्रकार की छोटी-मोटी अनियमितताओं पर आपत्ति करना भी बेमानी
हो जाता है ! भारत सरकार के श्वेत पत्र में उल्लेखित अघोषित आय/धन के लिए अपनाए
जाने वाले तरीकों की सूची से स्पष्ट है कि हम में से अधिकांश लोग प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से किसी-न-किसी स्टैज पर काले धन की निर्माण प्रक्रिया में लिप्त
हैं. एक अनुमान के अनुसार आपराधिक/अवैधानिक गतिविधियों की तुलना में वैधानिक
गतिविधियों से अर्जित काले धन की मात्रा अधिक है. वैधानिक गतिविधियों से प्राप्त
आय को पूर्ण या आंशिक रूप से नहीं दिखाने में देश के कॉर्पोरेट घरानों से लेकर सभी
वर्गों, विशेष रूप से प्रभावशाली व शिक्षित वर्ग, के नागरिक लिप्त हैं.
उक्त दोनो श्रेणियों की गतिविधियों के मूल में धन के प्रति लोभ-लालच की मानवीय
प्रवृत्ति होती है जिसे प्रशासनिक ढिलाई से प्रोत्साहन मिलता है. काले धन के
उन्मूलन को लेकर चिंतित हर कोई है, किंतु फिर भी समस्या लगातार जटिल होती जा रही
है. इसका कारण है कि मानव जाति के इतिहास में समृद्धि और अपराध (भ्रष्ट आचरण) के
तार आदिकाल से जुड़े रहे हैं. हर सभ्य समाज में संपत्ति के अधिकार को स्वीकृति दी
गई है. हमारे देश की संविधान सभा नें भी संपत्ति के अधिकार को व्यक्ति का मौलिक
अधिकार माना था. संपत्ति के प्रति मानव मन की अदम्य लालसा एक ओर “Right to property” जैसी वैधानिक स्वीकृतियों से सुदृढ़ होती हैं तो दूसरी ओर “जिसकी लाठी उसकी
भैंस” (Might is right) तथा “चोरी का गुड़ मीठा होता है” (Forbidden fruits are sweet) जैसी लोकोक्तियों में प्रतिबिंबित होती है. कोई आश्चर्य
नहीं कि अर्थ-प्रधान सामाजिक वातावरण व्यक्ति को भ्रष्ट आचरण के लिए प्रोत्साहित करता
है. समृद्धि और अपराध (भ्रष्ट आचरण) के संयुक्त तारों के सन्दर्भ में यहां पौराणिक
पक्ष की ओर इंगित करना भी प्रासंगिक रहेगा. धन-संपत्ति की देवी लक्ष्मी की
पूजा-अर्चना का विधान कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस्या की काली रात में कर हमने
प्रतीकात्मक रूप से धन के श्याम वर्ण को आदि काल से ही पौराणिक स्वीकृति प्रदान कर
रखी है. इतना ही नहीं, देवी लक्ष्मी के वाहन (carrier) के रूप में उल्लू को चिन्हित किया हुआ है जो कि रात्रि के
अंधेरे में अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए जाना जाता है.
इस पृष्ठभूमि में, काले धन की बहुलता एक संयोग मात्र नहीं है, बल्कि इसके लिए
पीढ़ी-दर-पीढ़ी सायास प्रयत्न किए जाते रहे हैं. यही कारण है कि भारत के संवैधानिक
गणतंत्र में अब ग्राम पंचायत से संसद तक वंश-परंपरा सुदृढ़ रूप से स्थापित हो चुकी
है. निर्धारित योग्यता रखते हुए भी आम आदमी के लिए किसी चुनाव में निर्वाचित हो
पाना टेढ़ी खीर है. धन-बल व बाहु-बल चुनाव में निर्वाचित होने की आवश्यक शर्त बन गए
हैं. स्थितियां यहां तक खराब हो चुकी है कि सामाजिक संस्थाओं के पदाधिकारियों के
चुनाव भी काले धन के बल पर लड़े जाते हैं. अब चुनाव समाज सेवा के लिए नहीं लड़े जाते
हैं बल्कि यह एक प्रकार का निवेश माना जाने लगा है जिसके माध्यम से व्यक्ति को कई गुना
धन अर्जित करने के अवसर प्राप्त होते हैं. वर्तमान राजनीतिक वातावरण में किसी भी
स्तर का चुनाव लड़ने और जीतने के लिए जितना धन चाहिए वह काली कमाई से ही संभव है.
यह एक खुला रहस्य है कि सभी राजनीतिक दल चुनाव लड़ने के लिए चंदा लेते हैं और सरकार
बनने के बाद चंदा देने वालों की चांदी होती है.
वर्ष
2012 में जिस गति से भारी राशियों के घोटाले सामने आये हैं, उससे ऐसा प्रतीत होना
स्वाभाविक है कि अब देश में भ्रष्टाचार बेलगाम होता जा रहा है. तुलना के लिए लोग प्राय:
कहते हैं कि – “पहले तो कभी इतने घोटाले नहीं होते थे”; “देश में भ्रष्टाचार था पर आटे में नमक की तरह” इत्यादि, इत्यादि. इस प्रकार के कथन तथ्यपरक नहीं हैं.
भ्रष्टाचार पहले भी था और किसी भी मापदंड से उसका तुलनात्मक प्रतिशत कम नहीं था.
अंतर केवल इतना है कि सरकारी कामकाज में पहले इतनी पारदर्शिता नहीं थी जो सूचना के
अधिकार और कंप्यूटरीकरण के कारण अब है. पहले जनता को घोटालों का पता नहीं चलता था
और वे दबा दिए जाते थे. अब सूचना के अधिकार, इंटरनेट, टीवी चैनलों व मीडिया की
सक्रियता के कारण कोई भी जानकारी कुछ ही क्षणों में पूरे देश में सार्वजनिक हो
जाती है. विकीपीडिया पर “भारत में घोटालों की सूची” शीर्षक के अंतर्गत
स्वतंत्रता से अब तक के सभी घोटालों को संकलित किया गया है. विगत एक दशक में सरकार
के तीनों अंगों – विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका – के बीच एक-दूसरे की
कमियों को सार्वजनिक करने की प्रतियोगिता होने लगी है. एक सीमा के पश्चात ऐसा अंतर्कलह
लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. किंतु इसके कारण सरकारी कामकाज में हो रही
अनियमिततायें व घोटाले जनता के सामने आ रहे हैं और चाहे-अनचाहे उन पर कार्यवाही भी
करनी पड़ रही है. सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता और पारदर्शिता के लिए यह एक अच्छा
संकेत है और इसका निवारक प्रभाव (Deterrent
Effect) होता है.
कई स्वतंत्र विश्लेषक मानते हैं कि आर्थिक सुधारों और संचार क्रांति के
पश्चात काले धन के अनुपात में कमी हुई है. टर्की के बॉगैज़िकी विश्वविद्यालय के दो
शोधकर्ताओं Ceyhun Elgin और Oguz Oztunali नें ब्रिक्स देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और साउथ अफ़्रीका) में 1950 से 2008
के दौरान काले धन की तुलनात्मक स्थिति के अध्ययन में पाया कि 1950 में भारत में काला धन सकल घरेलू उत्पादन
(जीडीपी) का 40 प्रतिशत था जो कि 2008 में घट कर 23.71 प्रतिशत रह गया है. इस
चार्ट के अनुसार काले धन को कम करने में भारत, केवल चीन को छोड़ कर, ब्रिक्स समूह (BRICS Group)
के शेष अन्य देशों की तुलना में अधिक सफल रहा है. यहां यह स्पष्ट करना भी आवश्यक
है कि काले धन का प्रतिशत चाहे कम हो गया हो, किंतु सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी)
में कई गुना वृद्धि होने से काले धन की कुल राशि भी निरंतर बढ़ती जा रही है.
किंतु
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मात्र आंकड़ों के विवेचन से समस्या हल नहीं होने वाली
है. कई अध्ययनों से व व्यावहारिक स्तर पर भी यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो चुका
है कि भ्रष्टाचार और काले धन के मूल में सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं.
जब किसी देश में चरित्र के दोहरेपन को सामाजिक स्वीकृति मिल जाती है तो नियमों का
उल्लंघन कर येन केन प्रकारेण धन अर्जित करने की प्रवृत्ति को खुली छूट मिल जाती है.
भौतिकतावाद की दौड़ में धन का महत्व बढ़ने के साथ ही आदर्शों और नैतिक मूल्यों का
ह्रास आरंभ हो जाता है. व्यक्ति सार्वजनिक मंच पर क्या कहता है और व्यक्तिगत जीवन
में क्या आचरण करता है, इन दोनों स्थितियों में जब तक विरोधाभास रहेगा, आम आदमी को
काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था में जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी त्रासदी में जीना
पड़ेगा. क्या इस त्रासदी से बाहर निकलने का कोई उपाय है? इसका उत्तर इस यक्ष प्रश्न
में निहित है – क्या हम लोग व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार के दोहरेपन को छोड़ने के लिए
तैयार हैं?
(लेखक बैंकिंग-वित्तीय विशेषज्ञ एवं स्वतंत्र लेखक है. यह लेख 27 09 2012 को लिखा गया था.)
इस वर्ष
इस Annex of Swiss Banks - All Countries
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